मनोकामना

मधु शर्मा (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

अमर का विवाह हुए दस बरस होने को आये। लेकिन उनके इतने बड़े घर में किसी नन्हें-मुन्ने की किलकारियाँ सुनने के लिए पति-पत्नी के कान तरस गये। दोनों ने हर प्रकार के टैस्ट करवा कर देख लिये परन्तु सब नॉर्मल ही निकला। परिणाम स्वरूप निराशा से भरी पत्नी डिप्रैश्न का शिकार हो गई। 

बहुधा मिलने-मिलाने वालों द्वारा दूर पहाड़ों पर बने एक देवी-माँ के प्राचीन मंदिर की महिमा सुन-सुन कर अमर से रहा न गया। अत: पत्नी से सलाह कर उसे दो दिन के लिए उसके मायके छोड़ वह उस मंदिर के लिए रवाना हो गया। पत्नी चाहते हुए भी उसके साथ न जा सकी, कि कहीं उसकी अस्वस्थता आड़े आकर अमर की यात्रा पूरी न होने दे। पहले तो ट्रेन का इतना लम्बा सफ़र, फिर पाँच-छ: घंटों की पहाड़ की चढ़ाई व आठ सौ के लगभग सीढ़ियाँ चढ़ना, यह सब एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी यदि असम्भव नहीं तो इतना आसान भी नहीं। 

ख़ैर, दोपहर की ट्रेन पकड़ अमर शाम को उस मंदिर के छोटे से शहर पहुँचा, और पहले से ही बुक करवाये होटल में रात बिताई। प्रात: जल्दी उठकर नहा-धोकर नाश्ता किया और देवी के दर्शन के लिए चल पड़ा। ढेरों आशाओं सहित उमंगों से भरा वह इतना उत्साहित पहले कभी नहीं हुआ था। 

पूरी श्रद्धा से अमर हर क़दम पर देवी-माँ का मंत्र जपते-जपते मंदिर की ओर जाते हुए पहाड़ी रास्ते पर बढ़ता चला जा रहा था। मन ही मन देवी माँ से अपनी मनोकामना पूरी करने की सरल से शब्दों में प्रार्थना भी करता जा रहा था कि “माँ, आप तो सब जानती हैं। आप सभी की मुरादें पूरी करती हैं। अपनी थोड़ी कृपा हम पर भी बरसा दें . . . ताकि हमें भी जल्द अपनी औलाद का मुँह देखना नसीब हो।”

कुछ दूर चलकर अपनी फूलती साँस को नियंत्रित करने हेतु जब अमर एक चट्टान से पीठ टिकाकर बैठा तो उसके दिमाग़ ने उसे झँझोड़ा, “यदि संतान हो भी गई, लेकिन स्वस्थ न रहे, तो?” यह विचार आते ही उसे अपनी प्रार्थना में यह जोड़ना पड़ा, “माँ, हमें ‘सेहतमंद’ औलाद का मुँह देखना जल्द नसीब हो।” थोड़ी दूर आगे बढ़ा तो दिमाग़ ने उसे फिर से टोका कि ‘स्वस्थ संतान पैदा हो भी गई . . . और बड़ी होकर नालायक़ निकली, तो? और लायक़ निकली भी, मगर माँ-बाप की सेवा करने वाली न हुई, तो?’

अपनी प्रार्थना में आगे से आगे, कुछ न कुछ जोड़ते-जोड़ते अमर मंदिर के द्वार तक पहुँच गया। लेकिन यह क्या? उसके दिल के भीतर से उसी पल एक ऐसी आवाज़ आई जिसने उसके दिमाग़ की बोलती बंद कर दी . . . और अमर की प्रार्थना बिल्कुल बदल गई। देवी माँ के चरणों में शीश झुकाये वह कह रहा था, “माँ, हम आपके बहुत आभारी हैं कि आपका दिया हमारे पास बहुत कुछ है। अब तो आपकी इच्छा में ही हमारी इच्छा है।”

घर लौटते हुए अमर स्वयं को बहुत हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था। क्योंकि दिमाग़ की सदैव सुनने वाले अमर ने अपने दिल की बात पर शायद पहली बार ध्यान दिया था। पत्नी के पूछने पर उसने जब अपनी यात्रा व फिर परिवर्तित मनोदशा उसे बताई तो पत्नी भी उससे पूरी तरह से सहमत हो गई और कहा, “वाक़ई, अगर हम दोनों अपने फ़र्ज़ यूँ ही सही ढँग से निभाते चले जायें तो प्रभु की रज़ा में ही राज़ी रहने में हमारी भलाई है।”

पति-पत्नी में आये इस परिवर्तन को दो माह ही हुए थे कि एक शाम काम से घर लौटने पर अमर को उसकी पत्नी ने उसे ऐसा शुभ समाचार दिया जिसका वो दोनों पिछले दस बरसों से कभी कितनी बेचैनी से प्रतीक्षा किया करते थे . . . लेकिन अब पिछले दो माह से उस बारे उन दोनों ने चिंता त्याग, चिंतामुक्त जीवन जीना सीख लिया था। 

बिन माँगी मनोकामना पूरी हो जाने पर अब अमर व उसकी पत्नी को भी प्रमाण मिल गया कि प्रभु उन्हीं के साथ हैं जो उनसे कुछ माँगने की बजाय उनमें आस्था रख, निष्कपट जीवन व्यतीत करते हुए जो भी मिले, उसी में संतुष्ट रहते हैं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 24 Dec, 2022 07:34 PM

    जीवन के दर्शन को समझाने वाली , सरल और आम इंसान की भावनाओं को दर्शाने वाली एक सुंदर अभिव्यक्ति .. साधुवाद !!

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