औरत

मधु शर्मा (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

एक न एक दिन वो सँभल जायेगा, 
सुबह का भूला शाम को घर आयेगा, 
दिल को मैं समझाती रही। 
 
अँधेरा उजाले में जल्द बदल जायेगा, 
दीप आस का मैं जलाती रही, 
दिल को मैं समझाती रही। 
 
दिल पत्थर का ज़रूर पिघल जायेगा, 
ढाढ़स ख़ुद को मैं बँधाती रही, 
दिल को मैं समझाती रही। 
 
बादल संकट का यह छँट जायेगा, 
बारिश में उसकी नहाती रही, 
दिल को मैं समझाती रही। 
 
बुतों में बसने वाले को तरस आयेगा, 
दिन रात उसे मैं मनाती रही, 
दिल को मैं समझाती रही ।
 
लेकिन . . . 
अँधेरा हटा न पत्थर पिघला, 
बादल छँटा न ही बुत हिला। 
(मैं क्योंकि औरत हूँ न) 
दिल सब का बहलाती रही, 
गीत विरह के ही गाती रही, 
दिल को यूँ समझाती रही ।

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