आत्मा की ख़ुराक 

15-12-2025

आत्मा की ख़ुराक 

मधु शर्मा (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मेरी बेटी मुझसे दूर हो गई है। आप सोच रहे होंगे कि शायद वह कहीं दूर चली गई है। नहीं, वह कहीं गई नहीं। इसी शहर में रहती है . . . तीन सदस्यों के अपने छोटे से ससुराल में, जहाँ वह बहुत सुखी है। 

 हम दोनों के बीच यह दूरी अचानक नहीं आई . . . मेरे ही कहने पर बेटी को यह दूरी अपनानी पड़ी। विवाह के बाद हनीमून से लौटकर अपनी नौकरी पर चार सप्ताह बाद उसका जाना, शाम को काम से लौटते समय कार में बैठते ही उसके द्वारा मेरा फ़ोन नम्बर मिलाना, और फिर उसके घर तक पहुँचते-पहुँचते हमारी वह लम्बी-लम्बी गम्भीर कभी हल्की-फुल्की वार्तालाप जो हर रोज़ न सही, फिर भी सप्ताह में तीन-चार बार हो ही जाया करती थी . . . वह अब नहीं होती। 

बातचीत भी इधर-उधर की नहीं बल्कि कभी इंसानियत को लेकर तो कभी इंसानों को लेकर, कभी इस पृथ्वी ग्रह से जुड़ी तो कभी दूसरे ग्रहों से सम्बन्धित या फिर मीडिया के बारे चर्चा-परिचर्चा इत्यादि। राजनीति को छोड़कर कोई भी ऐसा विषय न था जिसमें हम माँ-बेटी के विचारों का आदान-प्रदान न होता रहा हो। उसके बचपन से ही हम दोनों के बीच यह सहेलियों के से व्यवहार की जड़ अब तक बहुत गहरी जा चुकी थी। ऐसा हरगिज़ नहीं कि हम दोनों की सोच एक जैसी है। हम दोनों का मानना है कि कोई भी वार्तालाप रोचक कैसे हो सकती है, जिसमें लोग एक-दूसरे की हाँ में हाँ मिलाते जाएँ! किसी भी बातचीत में आनन्द या रुचि तो तब पैदा होती है जब वह मनोरंजक हो या उसमें कुछ नयापन हो या फिर हमारी ग़लत सोच को सही दिशा दिखाने वाला कोई समझदार व्यक्ति सामने हो। 

हाँ, तो मैं अपने व उसके बीच आई दूरी की बात कर रही थी। मुझे अपनी इस नयी ब्याही बेटी के लिए अब थोड़ी सी चिंता होने लगी थी। वह अक्सर कहने लगी थी—“मम्मी, इंसानियत के बारे मेरी और आप जैसी सोच रखने वाले और भी तो लोग होंगे . . . लेकिन वे नज़र क्यों नहीं आते? काम पर या दोस्त-रिश्तेदारों से, सभी से मेरी बातचीत होती है . . . लेकिन उनकी बातें केवल कपड़े-लत्तों, गहनों या फिर एक दूसरे की पीठ में छुरा भोंक कर सभी से आगे निकल जाने से ही जुड़ी होती हैं। पेट की भूख मिटाने के लिए हमारा रसोई-भंडार हमेशा भरा ही रहता है . . . लेकिन मुझे मेरी आत्मा को असली ख़ुराक सिर्फ़ आपसे बातचीत करने से ही मिल पाती है।”

मुझे तब कुछ खटका सा होने लग गया कि इस अभाव को महसूस करते-करते कहीं मेरी बेटी समाज से अपना पत्ता ही न काट ले। 

मुझे भी बेटी से बातें करना अच्छा लगता था। मुझ विधवा का उसके सिवा मेरा अपना कोई इतना क़रीबी भी नहीं है कि जिसके साथ मैं इतनी खुलकर बातें कर सकूँ। परन्तु मुझे अपनी नहीं, बेटी की चिंता थी . . . उसका मुझपर यूँ निर्भर रहना भविष्य में उसके लिए हानिकारक भी हो सकता था। क्या मालूम मैं कल रहूँ न रहूँ। 

मैंने इसीलिए अपने दिल को मज़बूत कर बातों-बातों में बेटी को समझाना शुरू किया कि वह अपने ससुराल व सहकर्मियों के साथ-साथ अपने हमउम्र के लोगों के साथ भी एक सोशल-नैटवर्क बनाए। बड़ी उम्र की मुझ औरत से (जिसकी सोच शायद एक-तरफ़ा ही हो) उसे आत्मा की वो पर्याप्त ख़ुराक नहीं मिल पायेगी, जो उसे दूसरे लोगों से प्राप्त हो सकती है। 

मुझे ख़ुशी हुई कि मेरी बात मानकर बेटी अपने घर के समीप के ही एक स्कूल की कमेटी की सदस्या बन गई। अब वह वहाँ के अध्यापकों, विभिन्न समुदाय के बच्चों व उनके माता-पिता के साथ स्कूल के फ़ंक्शन व मीटिंग वग़ैरह में मिलने-मिलाने या काम से लौटते समय उनसे ही फ़ोन पर अधिकतर व्यस्त रहती है। 

बेटी द्वारा यह परिवर्तन अपनाये लगभग एक वर्ष हो चुका है। मुझे फ़ोन करने के लिए अब उसे यदा-कदा ही समय मिल पाता है। हाँ, एक ही शहर में रहने के कारण हमेशा की भाँति मुझसे मिलने वह मेरे बेटे समान दामाद के साथ आती-जाती अवश्य है। परन्तु उसकी बातों में अब जो नयापन और उत्साह दिखाई देता है, माँ होने के नाते मेरे लिए इससे बड़कर प्रसन्नता और क्या हो सकती है! बेटी को उसकी आत्मा की ख़ुराक का स्थायी साधन जो मिल गया है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सजल
कविता
लघुकथा
हास्य-व्यंग्य कविता
किशोर साहित्य कविता
काम की बात
चिन्तन
नज़्म
कविता - क्षणिका
ग़ज़ल
चम्पू-काव्य
किशोर हास्य व्यंग्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
किशोर साहित्य कहानी
बच्चों के मुख से
आप-बीती
सामाजिक आलेख
स्मृति लेख
कविता-मुक्तक
कविता - हाइकु
सांस्कृतिक कथा
पत्र
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
एकांकी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में