पैसा-पैसा-पैसा
मधु शर्मा
“बेटा, जब से पिछले सप्ताह भारत से यहाँ इंग्लैंड तुम्हारे पास आई हूँ, देख रही हूँ कि तुम इतनी लेट शाम को ऑफ़िस से लौट कर आते हो और फिर रात देर तक जागकर पढ़ाई में लगे रहते हो . . . ठीक तरह से सो भी नहीं पाते! बेचारी भव्या क्या तुम्हारे साथ को तरसती न होगी!”
“मम्मी, बस चन्द हफ़्तों ही की बात है . . . एक बार यह प्रोमोशन मिल जाये तो उसे पाने के लिए यह पढ़ाई भी ख़त्म . . . और फिर पैसा ही पैसा व चैन की नींद भी . . .”
“लेकिन बेटे, यह पैसा-पैसा-पैसा की रट क्यों? इतने पैसे कमाकर करोगे क्या? भगवान की कृपा से दो-दो कार हैं, घर भी तुम्हारा इतना बड़ा है कि जिसके दो कमरे तुम कभी इस्तेमाल भी नहीं करते . . . और फिर तुम दोनों इतना पैसा बचा भी लेते हो कि थोड़ी-बहुत तो ऐश की ज़िंदगी बसर कर सकते हो। लेकिन समय की कमी का कारण बताकर या तो इस घर में बन्द रहते हो या साल-दो साल में यहाँ ही छोटी-मोटी हॉलिडे के लिए जा पाते हो।”
“चलिए मम्मी, अगर आपकी बात मान भी लूँ कि इससे बड़ा घर व बड़ी कार लेकर क्या हो जायेगा! लेकिन प्रोमोशन के लिए कोशिश न करने वाले इन्सान को उसी एक कुर्सी पर बैठे-बैठे उसके ख़ुद के दिमाग़ के साथ-साथ उस कुर्सी को भी जंग लग जाता है। मेरी तरक़्क़ी तो हो जायेगी यह मुझे पूरा विश्वास है . . . निश्चिंत होकर तभी कुछ आगे की सोच सकता हूँ।”
“बेटा, अगर यह बात है तो ख़ूब तरक़्क़ी करो और ख़ूब कमाओ। जब प्रोमोशन हो जायेगी तो तुम्हारी ‘पे’ भी बढ़ेगी ही। सलाह तो नहीं दूँगी बेटा, लेकिन मेरा सुझाव है कि हो सके तो उस समय यह कोशिश करना कि उन अतिरिक्त पैसों के आने पर तुम एक सफ़ाई वाली रखोगे और अपने इतने बड़े बग़ीचे के लिए किसी माली को भी। यह निगोड़ा विदेश भी . . . यहाँ वे सहूलियतें कहाँ जो बहू भव्या को अपने अमीर मायके दिल्ली में उपलब्ध थीं। सारा दिन घर-बाहर के कामों में उसे अकेली उलझी देख मुझे उस पर तरस आता है। मैं उसका कुछ हाथ बँटा तो दिया करती हूँ लेकिन मैं तो केवल दो माह के लिए ही यहाँ इंग्लैंड आई हूँ!”
“मम्मी, इस ओर तो मेरा ध्यान कभी गया ही नहीं। मैंने ख़ुद ही भव्या को नौकरी करने के लिए कहा था कि घर में अकेली कहीं बोर न हो जाए। वह चुपचुप-सी और थकी-सी रहने तो लगी है लेकिन पूछने पर यही कहती कि नई-नई जॉब है तो ऐडजस्ट होते ही ठीक हो जाऊँगी। अच्छा हुआ मम्मी, आपने मुझे समझा दिया।”
“और बेटा, फिर बच्चे होने पर वह और भी बीज़ी हो जायेगी न। तुम्हें अपने साथ-साथ उसका भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि तुम अगर इस जॉब से इतनी देर शाम को घर लौटते हो तो तरक़्क़ी हो जाने पर न जाने कितनी और लेट आया करोगे! तुम दोनों साथ-साथ कभी बाहर लंच-डिनर के लिए और छोटी-मोटी हॉलिडे करने की बजाय भव्या को लेकर कभी विदेश घूमने जाया करो। पैसा अपनी जगह है लेकिन आपसी रिश्तों की अहमियत उससे भी ज़्यादा होती है।”
भव्या, जो ऊपर के बेडरूम ठीक-ठाक कर नीचे आकर पिछली शाम का ख़रीद कर लाया हुआ सामान भंडार-घर में टिका रही थी, माँ-बेटे की बातचीत का आख़िरी हिस्सा ही सुन पाई तो भावुक हो उठी। यही ‘पैसा-पैसा’ वाली बात वह अपने पति से कितनी बार कहना चाह कर भी कभी कह न पाई . . . डरती थी कहीं वह नाराज़ न हो जाये।
आज माँ समान उसकी सास ने जिस सरलता से अपने बेटे को समझाया, शायद वह स्वयं भी कभी अपने पति को समझा न पाती। उसके मायके वाले ससुराल वालों के मुक़ाबले में बहुत अमीर थे लेकिन पैसे की बजाय रिश्तों को अधिक महत्ता देने वाली सास उसे दुनिया की सबसे धनी स्त्री लगीं।
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