अवसाद का इलाज 

15-10-2025

अवसाद का इलाज 

मधु शर्मा (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

एक अनदेखा और ऊपर से इतना दुखदाई अवसाद का रोग यानी कि डिप्रैशन का मानवीय शरीर में धीरे-धीरे पसर जाना अचम्भे का विषय नहीं। 

किसी अवसाद का कारण यदि अपने किसी प्रिय का दुनिया छोड़ जाना हो सकता है, तो कभी किसी के द्वारा ‘अपना’ होने का दावा करते रहना परन्तु संकट आने पर उसे दुनिया से अकेले ही जूझने के लिए छोड़ जाने पर उसके मन को रोगी बना देना। या फिर अच्छा-भला चल रहा व्यापार अचानक ठप्प हो जाये तो कभी किसी की अपना व घरवालों का पेट पालने वाली इकलौती नौकरी जब छूट जाए या फिर और उससे भी अधिक कष्टदायक वह अवसाद जब मनुष्य रोगग्रस्त या बुढ़ापे के कारण बिस्तर पकड़ने पर अपनी छोटी से छोटी ज़रूरतों के लिए मजबूरन दूसरों पर निर्भर होना शुरू हो जाए, इत्यादि इत्यादि। 

इनमें से किसी एक भी स्थिति से उलझते हुए उस व्यक्ति के भीतर कब व कैसे अवसाद घर कर जाता है, उसकी न तो स्वयं उस व्यक्ति को और न ही उसके आसपास रहने वालों को झट से भनक पड़ पाती है। 

इस युग में यद्यपि हर रोग का इलाज उपलब्ध है, परन्तु एक डॉक्टर को सबसे पहले अवसाद ग्रसित रोगी के अवसाद का कारण जानना होता है, जो केवल एक मनोचिकित्सक ही जाँच सकता है। वह रोगी को सामने बिठाकर वार्तालाप के ज़रिये उस कारण की जड़ तक पहुँचता है। इसके पश्चात ही वह निर्णय कर पाता है कि रोगी को केवल दवा या फिर दवा के साथ-साथ किस प्रकार की काउन्सलिंग की भी ज़रूरत होगी। 

यदि रोगी अपने परिवार में या किसी अपने के साथ रह रहा हो तो दवाओं का समय पर लेना या काउन्सलिंग के लिए निर्धारित दिन/समय पर उसे साथ ले जाने वाला कोई न कोई होता है। ऐसे में उसका रोग दूर होने में अधिक समय नहीं लगता। 

परन्तु चिंतन का विषय यहाँ यह है कि एक रोगी जो अकेला रह रहा हो, और उससे आशा रखी जाये कि वह समय पर दवा ले या फिर काउन्सलिंग के लिए निर्धारित दिन पर तैयार हो वहाँ समय पर पहुँच जाये, वास्तविकता में नब्बे प्रतिशत रोगी ऐसा कर नहीं पाते। ऐसे रोगी को ठीक होने में बरसों लग जाते हैं या फिर इलाज बीच में ही छोड़-छाड़कर वह अपने घर की चारदीवारी में क़ैद हो डिप्रैशन से कभी बाहर निकल ही नहीं पाता। 

मानसिक रोगियों की दिन-प्रतिदिन बढ़ती संख्या को यदि स्वास्थ्य सम्बंधित संस्थाएँ रोकना चाहती हैं, तो उन्हें चाहिए कि प्रारंभिक दिनों में रोगी का इलाज एक छोटे बच्चे की भाँति किया जाये। उदाहरण के तौर पर उसे समय पर दवा देना, काउन्सलिंग-सैशन के लिए आने-जाने की सुविधाएँ प्रदान करना, इत्यादि इत्यादि। और यदि कोई बहुत ही गम्भीर केस हो तो उसे कुछ समय के लिए रिहैब में भेज देना चाहिए, जब तक वह रोगी अपनी देखभाल स्वयं करने योग्य न हो जाये। नियमित समय पर दवा व काउन्सलिंग मिलते रहने पर रोगी अपने भीतर सकारात्मक बदलाव आता देख स्वयं ही अवसाद से शीघ्र छुटकारा पाने व स्वस्थ होने की चेष्टा करने लग जाता है। 

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