बाऊजी

मधु शर्मा (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

टीवी तो क्या रेडियो की भी उन दिनों मनाही थी, 
फ़िल्में देखने की बात इसीलिए उनसे छुपाई थी। 
पढ़ो-लिखो, कुछ बनो! यही रट वह लगाए रखते, 
मम्मी से तो हँस-बोल लेते, बाऊजी से हम डरते। 
 
हमारे नाच-गाने पर जितनी टोका-टाकी करते थे, 
खेल-कूद हमारे में वह उतनी दिलचस्पी रखते थे। 
टैगोर थियेटर, सर्कस, नुमाइश बिन कहे ले जाते, 
घूमाते-फिराते थे बाऊजी व ख़ूब खिलाते-पिलाते। 
 
और फिर जैसे ही कॉलेज जाना हमने शुरू किया, 
सख़्त रवैया बाऊजी का रातों-रात ही बदल गया। 
पिता नहीं तब एक दोस्त समान वह पेश आने लगे, 
कम बोलने वाले वही जमकर चुटकुले सुनाने लगे। 
 
घर के छोटे-बड़े फ़ैसलों में हमें शामिल करने लगे, 
धीरे-धीरे उनका भी यक़ीन हम हासिल करने लगे। 
सोचते हैं अब कि जब तक था सिर पर उनका हाथ, 
क़दम-क़दम पर सदा दिया बाऊजी ने हमारा साथ। 
 
कोई तो सुने अब या सुनाए ‘मधु’ को आपकी बात, 
बाऊजी! तरसते रहते हैं हम इसी के लिए दिन-रात। 

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