बाऊजी
मधु शर्मा
टीवी तो क्या रेडियो की भी उन दिनों मनाही थी,
फ़िल्में देखने की बात इसीलिए उनसे छुपाई थी।
पढ़ो-लिखो, कुछ बनो! यही रट वह लगाए रखते,
मम्मी से तो हँस-बोल लेते, बाऊजी से हम डरते।
हमारे नाच-गाने पर जितनी टोका-टाकी करते थे,
खेल-कूद हमारे में वह उतनी दिलचस्पी रखते थे।
टैगोर थियेटर, सर्कस, नुमाइश बिन कहे ले जाते,
घूमाते-फिराते थे बाऊजी व ख़ूब खिलाते-पिलाते।
और फिर जैसे ही कॉलेज जाना हमने शुरू किया,
सख़्त रवैया बाऊजी का रातों-रात ही बदल गया।
पिता नहीं तब एक दोस्त समान वह पेश आने लगे,
कम बोलने वाले वही जमकर चुटकुले सुनाने लगे।
घर के छोटे-बड़े फ़ैसलों में हमें शामिल करने लगे,
धीरे-धीरे उनका भी यक़ीन हम हासिल करने लगे।
सोचते हैं अब कि जब तक था सिर पर उनका हाथ,
क़दम-क़दम पर सदा दिया बाऊजी ने हमारा साथ।
कोई तो सुने अब या सुनाए ‘मधु’ को आपकी बात,
बाऊजी! तरसते रहते हैं हम इसी के लिए दिन-रात।
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