वाणी-वाणी का प्रभाव 

15-07-2025

वाणी-वाणी का प्रभाव 

मधु शर्मा (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

आगामी शनिवार उनके क्लब की इस नयी आधुनिक बिल्डिंग का उद्घाटन होने वाला था। 

दो सप्ताह हुए जब वहाँ के अध्यक्ष द्वारा फ़ोन पर विनम्र आवेदन करने पर सहायता करने हेतु पहुँचे पाँच-सात सदस्य उल्लासपूर्वक आज इस भव्य हॉल में फ़र्नीचर इत्यादि सैट करने में जुटे हुए थे। और साथ ही साथ क्लब की पुरानी बिल्डिंग से जुड़ी कुछ मीठी कुछ कड़वी यादों को साझा कर रहे थे। 

“यार, पिछले ही साल तो हम अपनी उस पुरानी बिल्डिंग को वहाँ नया मॉल बनाने वालों के हवाले करते हुए कितना दुखी हो रहे थे न . . .!” एक सदस्य ने जब यह कहा तो उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए एक अन्य सदस्या हँसती हुए बोलीं, “जी हाँ, लेकिन हमें उस टूटे-फूटे हॉल की मार्केट से पाँच गुना ज़्यादा क़ीमत न मिलती तो हम कभी सपने में भी इतनी बढ़िया इस लोकेशन में मूव होने का सोच भी नहीं सकते थे।”

अध्यक्ष महोदय की देख-रेख में आज सब इंतज़ाम सुव्यवस्थित व समय पर चल रहा था। इतने में उनकी पत्नी भी आन पहुँची। क्लब के पाक्षिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होने की बजाय वह यदा-कदा वार्षिक फ़ंक्शन में आ जाया करतीं . . . और फिर टोका-टाकी कर लौट जाया करतीं। आज उन्हें वहाँ अचानक देख उपस्थित लोगों ने चुप्पी साध ली और केवल हैलो-हाय कर अपने-अपने काम में लग गये। 

इतने में ऑर्डर की गईं सौ नयी कुर्सियाँ-मेज़ों सहित एक ट्रक भी आ पहुँचा। सभी उत्साहित हुए बिल्डिंग से बाहर आ गये और ट्रक वाले का हाथ बँटाने के लिए प्लास्टिक-चादर में लिपटे उस नये फ़र्नीचर को हॉल के मुख्य द्वार से अंदर लाने में जुट गये। 

इतने में एक चिल्लाती हुई कर्कश आवाज़ उनके कानों में पड़ी, “अरररररे, आप लोग यह क्या कर रहें हैं . . . क्या कर रहे हैं? दिखाई नहीं दे रहा कि मेरे पति ने यह इतना क़ीमती दरवाज़ा लगवाया है . . . और आप अंधों की तरह पीछे वाले गेट की बजाय इस दरवाज़े का इस्तेमाल कर रहे हैं?” 

अध्यक्ष महोदय ने अपनी पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाने का प्रयास किया, “डीयर, यह हमारा घर नहीं, बल्कि एक परिवार से भी ज़्यादा अपनापन लिए क्लब के ये सभी पुराने मैम्बर हैं। और फिर ये बच्चे तो नहीं . . . बल्कि कोई डॉक्टर हैं तो कोई ऊँचे पदों पर नियुक्त . . .”

परन्तु वह पति का हाथ झटककर बुड़बुड़ाती हुईं वहीं कोने में एक कुर्सी पर जमकर बैठ गईं। 

बस फिर क्या था! धीरे-धीरे एक के बाद एक कुछ सदस्य तो बहाना बना कर चले गये कि घर से ज़रूरी फ़ोन आ गया है और बाक़ी के अपने किसी रोगी की तबियत अचानक बिगड़ जाने का कह वहाँ से चलते बने। 

अध्यक्ष महोदय शर्म के मारे ज़मीन में गढ़ गये और वहीं अपना सिर पकड़ कर बैठ गये। क्योंकि उन्होंने एक साथी को यह कहते सुन लिया था, “अगर दरवाज़ा क़ीमती है तो क्या हमारा समय मूल्यवान नहीं? बेचारे भाई साहब, जितने वो सॉफ़्ट हैं, उतनी ही कर्कशा इनकी श्रीमती जी! उनकी विनम्रता अगर हमें आज यहाँ खींच लाई थी तो उनकी वाइफ़ की टोका-टोकी भी सहना हमारे बस की बात नहीं। हमने अपना काम तो निपटा ही लिया है . . . लेकिन अब चाय-पानी के चक्कर में यहाँ और रुकने का मतलब होगा कि भाई साहब को हमारे सामने और भी शर्मिंदगी का सामना करते रहना।”

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