अकेलेपन का बोझ

01-07-2022

अकेलेपन का बोझ

मधु शर्मा (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“हैलो मेनका! बिज़ी तो नहीं? कहीं मैं डिस्टर्ब तो नहीं कर रही? सॉरी, उस वक़्त पड़ोसन आ गई थी तो तुम्हारा फ़ोन काटना पड़ा। अब डिनर वग़ैरह निपटा कर फ़्री हुई तो सोचा बात पूरी कर लूँ।”

भली-भाँति जानते हुए भी कि दीदी क्या बात पूरी करने जा रही हैं, मेनका ने भीतर ही भीतर डरते हुए लेकिन बाहर से अपनी आवाज़ में शरारतीपन घोलते हुए कहा, “नहीं नहीं दीदी! कल रात का रिकॉर्ड किया हुआ टीवी का एक कॉमेडी-शो देख कर लोट-पोट हो रही थी . . . वो कहावत है न ‘मेले में अकेला, अकेले में मेला’ . . . मुझ पर सही फ़बती है।”

“तुम भी तो ज़िद्द कर बैठी हो! तुम्हारे डिवोर्स के बाद तुम्हेंं कितना समझाया था कि इतनी लम्बी ज़िंदगी अकेली कैसे काटोगी। कोई साथी ढूँढ़ लो . . . “

“लेकिन दीदी, उस वक़्त दोनों बेटे छोटे थे। शुरू-शुरू में तो उनकी देखभाल, फिर उनके बड़े होने पर उनके साथ टाइम कैसे बीतता चला गया, मुझे महसूस ही न हुआ। उस वक़्त किसे मालूम था कि आने वाले समय में दोनों को इंडिया नहीं अमेरिका में जॉब मिल जाएगी, फिर दोनों वहीं की लड़कियाँ पसन्द कर वहीं सैटल हो जायेंगे।”

“मेनका, बेटों से तो साल-दो साल में ही मिल पाती हो। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। तुम देखने में इतनी सुंदर हो कि बावन की होकर भी फ़ॉर्टी-फ़ाइव की लगती हो . . . जीवन-साथी ढूँढ़ने में तुम्हें कोई दिक़्क़त नहीं होगी। तुम हाँ तो करो . . . मैं और तुम्हारे जीजा जी चुटकियों में . . .”

“नहीं दीदी, यह पॉसिबल नहीं। अपनी जॉब में, और अपनी जान-पहचान वालों में भी, मैंने यही नोट किया है कि दूसरों को बराबर का समझने वाले या उन्हें पहल देकर बाद में ख़ुद के बारे सोचने वाले मुझ जैसे लोग बहुत ही कम हैं। बाक़ी के नब्बे-पंचानवे पर्सैंट लोग ख़ुद का पहले, दूसरों का बाद में सोचते हैं . . . दूसरा चाहे उनका अपना सगा ही क्यों न हो! इतने सारे लोगों की ऐसी सोच है तो शायद वो भी ग़लत नहीं . . . और रही मेरी बात तो . . . ज़िंदगी का अकेले बोझ ढोना आसान नहीं तो भारी भी नहीं। क्योंकि सैल्फ़िश लोगों के बीच घुट-घुटकर जीना . . . मैं सह न सकूँगी।”

“तो मेनका तुम भी उन जैसी बन जाओ न!”

“नहीं दीदी, जब छोटी उम्र में ख़ुद को बदल नहीं पाई तो अब इस उम्र में . . .? चलिए दीदी, टॉपिक बदल दें और प्रॉमिस करें कि इस बारे आइंदा कभी बात नहीं छेड़ेंगी . . . आपकी इस बात पर मेरा आपको इस तरह बार बार टोकना या टालना, मुझे बहुत दु:ख पहुँचाता है।”

“ओके मेनका, तुम समझदार हो सो तुम्हारे सोच-समझ कर किये गये फ़ैसले से हम भी सहमत हैं। मम्मी के बाद मैंने तुम्हेंं बहन नहीं बेटी की तरह पाला था . . . तुम सुखी हो तो हम भी तुम्हारी तरफ़ से निश्चिंत हैं।”

अपनी दीदी का प्रेम-भरा आश्वासन सुनकर आज मेनका के सिर के ऊपर से मानो बरसों का ढोया हुआ बोझ अचानक ओझल हो गया।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कहानी
कविता
सजल
हास्य-व्यंग्य कविता
लघुकथा
नज़्म
कहानी
किशोर साहित्य कविता
चिन्तन
सांस्कृतिक कथा
कविता - क्षणिका
पत्र
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
एकांकी
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में