मतलबी

मधु शर्मा (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“एक मिनट अंशु, आंटी शर्मा का फ़ोन आ रहा है, ज़रा वो अटैंड कर लूँ . . .” अपने मोबाइल फ़ोन पर बज रही घंटी सुन गरिमा ने अपनी सहेली की बात रोकते हुए चाय का मग कॉफ़ी-टेबल पर रखा और फ़ोन उठा लिया। 

दो-एक मिनट बाद फ़ारिग हो वो अपनी दोस्त से माफ़ी माँगते हुए बोलीं, “अच्छा तो तुम क्या बता रही थीं?” 

अंशुला अपनी बात पूरी करने की बजाय पूछ बैठी, “यह तुम्हारे भाई गौरव की सास थीं न? उसी की शादी में इन्हें देखा था . . . बड़ी नकचढ़ी सी हैं, किसी से बात ही नहीं कर रहीं थीं। और आज तो तुमसे बहुत हँस-हँसकर बतिया रही थीं . . . मुझ तक उनकी आवाज़ साफ़ आ रही थी। और यह तुम उन्हें किसी पूजा-वूजा करने का बार-बार थैंक्स क्यों कर रही थीं?” 

गरिमा का पहले तो ग़ुस्से से मुँह लाल हो गया लेकिन फिर अपने पर क़ाबू करते हुए रूखी सी आवाज़ में बोली, “नहीं ऐसी कोई बात नहीं। शादी वाले दिन आंटी अकेले ही इतने बड़े फ़ंक्शन की देख-रेख में लगीं हुईं थीं . . . और फिर वो भी उनकी इकलौती बेटी की शादी . . . तो नर्वस होने के कारण हम लोगों से कम ही बात कर पा रहीं थीं . . .। और रही पूजा करने की बात तो मुझे तुम्हें बताना तो नहीं चाहिए क्योंकि आंटी ने भी मना किया है। लेकिन उनके बारे तुम्हारी ग़लतफ़हमी दूर करने के लिए मुझे अब तुम्हें बताना ही पड़ेगा। मेरी कैंसर वाली न्यूज़ सुनते ही इन्होंने एक पूजा करने की ठानी थी। यह उन्हें अकेले में करनी थी, बिना कुछ खाए-पिये। आंटी को पाँच-छह घंटे तो लग ही गये होंगे क्योंकि अभी उसी पूजा से उठकर मुझे फ़ोन किया है कि भगवान पर भरोसा रखो, देखना जल्द ठीक हो जाओगी।”

अंशुला मुँह बनाते हुए बोली, “और तुम समझती हो उन्होंने यह सब तुम्हारे लिए किया है? अरे गरिमा, इसमें उनका ज़रूर अपना ही स्वार्थ होगा कि अगर तुम्हें कुछ हो गया तो तुम्हारे दोनों छोटे-छोटे बच्चों की ज़िम्मेदारी कहीं उनकी बेटी पर न आन पड़े . . .” 

लेकिन उसकी बात बीच में ही काटते हुए गरिमा इस बार ऊँचे स्वर में बोली, “अंशुला!!! तुम कुछ भी बिन सोचे-समझे किसी भी इंसान की बुराई करने बैठ जाती हो! अपनी ज़ुबान से अगर किसी के लिए भली बात नहीं निकाल सकती हो तो उसके बारे बुराई करने का भी तुम्हें कोई हक़ नहीं। आंटी तो इससे पहले भी एक बार अपनी ही एक सहेली के लिए यही पूजा कर चुकी हैं। उसके ठीक हो जाने पर उन्होंने यह कभी नहीं जताया कि 'देखा! मेरी पूजा से ही वो ठीक हुई है'। बल्कि उन्होंने मुझे यही कहा कि डॉक्टरों के साथ-साथ सहेली का भगवान पर भरोसा होने के कारण ही उसे नई ज़िन्दगी मिली है। अब तुम बताओ . . . उस औरत का भी कैंसर ठीक हो जाने के पीछे क्या आंटी का कोई अपना मतलब था? नहीं न! क्योंकि इस दुनिया में निःस्वार्थी लोग भी होते हैं, तुम्हारी उलटी सोच की तरह सभी लोग मतलबी नहीं होते।”

यह कहते हुए गरिमा ने बाहर का दरवाज़ा खोला। अंशुला अपना सा मुँह लिए सोफ़े से उठ खड़ी हुई। वह जान चुकी थी कि उसका वहाँ अब और ज़्यादा रुकना उन दोनों के ही लिए उचित नहीं। 

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