काश . . .

मधु शर्मा (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)


न जात-पाँत होती, न बग़ावत होती, 
न चाहत रोती, न रूठी मोहब्बत होती। 
न घबराहट होती, न कसमसाहट होती, 
न दिल टूटते, न कभी शिकायत होती। 
 
न दावत बड़ी देते, न वह सजावट होती, 
न क़र्ज़ में डूबते, न यूँ छटपटाहट होती। 
न सट्टेबाज़ी होती, न ही दग़ाबाज़ी होती, 
न जुआरी होते, न चरित्र में गिरावट होती। 
 
न पानी मिला दूध, न ही नक़ली दवा होती, 
न महँगाई होती, न सरेआम मिलावट होती। 
न आता मोटापा, न निगोड़ी थकावट होती, 
संतुलित खान-पान से सदा तरावट होती। 
 
न बड़े घर, बड़ी गाड़ियों की दिखावट होती, 
केवल दिल बड़े होते, न कोई बनावट होती। 
न बेटा लालची होता, न हिचकिचाहट होती, 
देते सब कुछ सौंप, न यह झुँझलाहट होती। 
 
कड़वाहट नहीं, रिश्तों में यदि गरमाहट होती, 
दीवाली पे दिलों में भी तब जगमगाहट होती। 
वृद्धाश्रम में रहकर माँ-बाप सुखी कहाँ 'मधु'
मुख पर उनके वरना असली मुस्कुराहट होती। 

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