तथाकथित ‘रचनाकारों’ से निवेदन
मधु शर्मा
सम्पादकीय: कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
आदरणीय सम्पादक सुमन घई जी द्वारा अप्रैल के प्रथम अंक के सम्पादकीय ‘कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की’ में निस्संकोच कही गई कितनी ही बातें ऐसे तथाकथित ‘रचनाकारों’ पर सही आँकी जा सकती हैं। यदि इस संदर्भ में लिखना शुरू करें तो एक ग्रंथ न सही लेकिन बड़ा सा निबंध तो अवश्य लिखा जा सकता है।
बचपन से लेकर जब भी अन्य पत्रिकाओं सहित किसी स्कूल या कॉलेज की वार्षिक पत्रिका कहीं भी रखी मिलती तो मुझसे पढ़े बिना रहा न जाता। परन्तु आधी से अधिक रचनाएँ ‘चोरी’ की गईं या कुछ शब्दों का हेरफेर की हुईं मिलतीं तो बहुत दुख होता था। उन दिनों इंटरनैट, सोशल मिडिया इत्यादि न होने के कारण यह मालूम करना असंभव होता था कि असली रचनाकार कौन है।
परन्तु आज के इंटरनैट प्रधान युग में भी किसी और की रचना के शब्दों को अदल-बदल कर प्रकाशित करवाना या श्रोताओं के समक्ष बेझिझक प्रस्तुत कर देना, भई वे तो पुरस्कार के अधिकारी हैं। ऐसे ‘रचनाकार’ प्रसिद्धि या सम्मान पाने के लिए इस हद तक नीचा गिर सकते हैं, तो क्यों न ‘नेम ऐंड शेम’ (Name and Shame) द्वारा उन्हें प्रसिद्धि दिलवाई जाये।
अच्छी बॉलीवुड फ़िल्में देखने का शौक़ मुझे कॉलेज के दिनों से हुआ था। उनमें से कुछ फ़िल्मों ने इतना प्रभावित किया कि मस्तिष्क पर उनकी अमिट छाप पड़ गई थी। लेकिन इंग्लैंड आने पर जब हॉलीवुड फ़िल्में देखने को मिलीं तो वही छाप जैसे मेरे मुँह पर तमाचे के रूप में छप गई . . . सिनेमा-जगत के नम्बर वन बॉलीवुड ने मेरे भारतीय होने के गर्व पर ठेस पहुँचा कर रख दी . . . क्योंकि ढेरों ही फ़िल्म हॉलीवुड फ़िल्मों की नक़ल थीं। उनमें से कुछ-एक के नाम हॉलीवुड फ़िल्मों की कॉपी की गई के नाम के साथ प्रस्तुत हैं:
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कटी पतंग (No man of her own)
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आराधना (To each his own)
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दिल है कि मानता नहीं (It happened one night)
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कोयला (Revenge)
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छोटी सी बात (School of scoundrels)
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धर्मात्मा (The Godfather)
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बाज़ीगर (A kiss before dying)
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ब्लैक (The miracle worker)
(बॉलीवुड में ही नहीं अपितु अन्य महान देशों में गीतों के शब्दों के साथ-साथ धुन की भी चोरी करना आम सी बात है . . . वो कहानी फिर सही)
मेरे दो-एक जानने वालों ने कई बार मुझे टोका भी कि मैं क्यों अपनी नई कविता, कहानी या चिंतन अपने लोकल रेडियो पर सुना डालती हूँ। उनका कहना है कि कुछ लोग दूसरों की रचनाएँ सुनकर फिर उन्हें अदल-बदल कर दूसरी भाषा में या अपने देशों में छपवा लेते हैं। मेरा विनम्र उत्तर यही होता है कि पहली बात तो यह कि मुझे नहीं लगता मेरी रचनाएँ इतनी ‘महान’ हैं कि चोरी करने योग्य हों, और यदि कोई ऐसा कर भी लेता है तो भई, मेरा क्या जाता है? मैं तो अपनी भावनाएँ या दूसरों का दर्द देख-जान कर काग़ज़ पर उतार कर हल्की हो लेती हूँ . . . लेकिन ऐसी तनाव मुक्ति, ऐसी संतुष्टि उन अभागे ‘रचनाकारों’ को कहाँ नसीब!
अत: इन तथाकथित ‘रचनाकारों’ से निवेदन करना चाहूँगी कि आपके अंदर का लेखक उमड़-उमड़ कर बाहर आने को मचलता तो अवश्य होगा। तो मेरा एक सुझाव है कि आपको प्रतिदिन न सही, पूरे सप्ताह में पाँच-दस लोगों से मिलने-जुलने या वार्तालाप करने का अवसर मिलता तो होगा। उन में से कम से कम दो-एक की बातों-बातों में आपको किसी लघुकथा या हास्य-व्यंग्य या छोटे-मोटे आलेख के लिए सामग्री मिल ही जायेगी। बस फिर चोरी की हुई रचना को अदल-बदल करने के बदले आप उस वार्तालाप को अदल-बदल कर लिख डालें। देखिएगा, फिर जो आनन्द व सन्तोष की अनुभूति होगी वह सौ सुख के बराबर होगी।
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