मानसिक यातना

15-02-2025

मानसिक यातना

मधु शर्मा (अंक: 271, फरवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

“मीरा जी, आप इस समय कहीं बीज़ी तो नहीं?” 

रुक्मिणी ने अपनी समधिन का फ़ोन मिलाने पर दूसरे सिरे पर उसकी आवाज़ सुनते ही पूछा। और मीरा का हिचकिचाहट भरा उत्तर सुनकर कि वह ख़ाली बैठी एक पुरानी पत्रिका के पन्ने उलट-पुलट रही थी, तो रुक्मिणी बोली, “पिछले दो सप्ताह से सोच ही रही थी, जब से मैं चेतना व मानस के घर मूव हुई हूँ, आपका फ़ोन नहीं आया . . . तो सोचा क्यों न मैं ही ख़ुद फ़ोन कर आपका हाल-चाल पूछ लूँ! मानवी को उसकी नर्सरी से लेकर आई थी और अब मानव के स्कूल से लौटने की वेट कर रही हूँ।”

“नहीं रुक्मिणी दीदी, ऐसी कोई बात नहीं। तनु से मैंने बोला था कि जब आप उनके यहाँ सैटल हों जायें तो वह मुझे बता दे . . . मैं आप सभी से मिलने आ जाऊँगी। आपका बेटा भी फ़ोन पर इतने अपनेपन से पूछ रहा था कि कहीं मैं उनके यहाँ बेटी-दामाद का घर समझ कर तो आने से नहीं कतरा रही . . . ,” मीरा ने फिर हिचकिचाते हुए कहा। 

दोनों समधिनों के बीच हो रही इस मधुर वार्तालाप के लगभग बीस-पच्चीस मिनट पश्चात रुक्मिणी ने हँसते हुए कहा, “यह लें, आपका लाड़ला नाती भी स्कूल से आ गया। चलिए मीरा जी, मैं उसके लिए कुछ खाने के लिए लाती हूँ, तब तक आप उसी से बात करें। मिलने कब आ रही हैं, इसे ही बताइएगा। नमस्ते।”

लेकिन यह क्या! मानव ने तो फ़ोन नीचे रख दिया। 

“तुमने अपनी नानीजी का फ़ोन क्यों काटा?” हैरान हुई रुक्मिणी ने दस वर्षीय मानव से पूछा। 

“दादी, मुझे वह अच्छी नहीं लगतीं। मुझे आपको बताना तो नहीं चाहिए . . . लेकिन दादू ने मुझे बताया था कि एक दिन नानी उन्हें स्ड्यूस (पथभ्रष्ट) करने की कोशिश कर रहीं थीं तो दादू ने उन्हें बुरी तरह से डाँट दिया . . . यह कहकर कि अपने हस्बन्ड को डिवोर्स देकर दूसरों के पति पर डोरे डालते उन्हें शर्म नहीं आती? और फिर उन्होंने नानी से कभी कोई बातचीत नहीं की।”

सिर नीचा किये मानव धीमी आवाज़ में अपनी दादी से यूँ बोल रहा था कि जैसे उसी ने कोई अपराध किया हो। उसने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा, “दादी, इस बात को किसी ओर के साथ शेयर न करने का दादू ने मुझसे वादा लिया था। अब दादू नहीं रहे तो आपके पूछने पर मुझे यह बताना पड़ा। लेकिन प्लीज़, आप यह मम्मी को कभी न बताइएगा, क्योंकि आख़िर वह उनकी बेटी हैं . . . “

“लेकिन यह सब झूठ है, मानव बेटे!!”, मानव की बात बीच में ही काटते हुए रुक्मिणी लगभग रूआँसी हुई बोली, “तुम्हें याद है न कि दो वर्ष पहले हम सभी व मीरा जी को साथ लेकर तुम्हारे मम्मी-डैडी हमें दुबई घूमाने ले गये थे, और वहाँ एक विला किराए पर लिया था। 

“एक रात जब मैं सोने की कोशिश कर रही थी कि तुम्हारे दादू को दबे पाँव साथ वाले कमरे में, जहाँ तुम्हारी नानी सो रहीं थीं, जाते हुए देखा . . . और कुछ ही पल बाद मैंने मीरा जी की दबी आवाज़ में उन्हें डाँटते सुना। तुम्हारे दादू उन्हीं क़दमों से वापस चुपचाप आकर मेरे बग़ल में लेट गये। अगली सुबह ही तुम्हारी नानी टैक्सी बुलाकर एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गईं . . . यह कहकर कि उनके फ़ोन पर रात को कैनल (कुत्तों के रहने का घर) वालों का मैसज आया है कि उनके कुत्ते टॉमी की तबियत अचानक बिगड़ गई है। 

“दादू की पिछली रात वाली हरकत किसी को बताने की बजाय, और किसी को तकलीफ़ दिए बिना वह अकेली ही लौट गईं। मैंने दो दिन बाद फ़ोन कर उनसे माफ़ी माँगी थी . . . क्योंकि मुझे मालूम था कि टॉमी की बीमारी का तो उन्होंने सिर्फ़ बहाना बनाया था। वास्तव में वह हम सभी को शर्मिंदा नहीं होने देना चाहती थीं। उन्हें डर था कि यदि वह न जातीं तो कहीं उनका चेहरा पढ़कर हम जान न जायें कि उनके व तुम्हारे दादू के बीच कुछ अनबन हुई है। और मानव तुम . . . तुम दादू की बातों में आकर, जो सालों से मानसिक रोगी थे, अपनी देवी समान नानी से बात न करके उन्हें यूँ ही मानसिक यातना देते रहे?” 

यह सुनते ही मानव की आँखों से पश्चाताप के आँसू बहने लगे। फ़ोन उठाकर वह अपनी नानी का नम्बर घुमा रहा था, और कृतज्ञता भरी दृष्टि से अपनी दादी की ओर भी निहार रहा था। 

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