दिलासा

मधु शर्मा (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

पति द्वारा ठुकराए जाने पर, 
घर से बेघर किये जाने पर, 
दिलासा देते बोली एक सखी, 
‘तुम पहली औरत नहीं . . .’

“अब यह भी मेरी पत्नी है, तुम्हें यहाँ इसके साथ रहना हो तो भी तुम्हारी मर्ज़ी . . . नहीं रहना तो भी तुम्हारी मर्ज़ी। तुम्हारे ख़र्चे-पानी के पैसे महीने के महीने तुम्हारे अकाउंट में आ जाया करेंगे।”

उसके पति के इन शब्दों ने जैसे उस पर अचानक बिजली गिरा दी हो। उसने अपना थोड़ा-बहुत सामान समेटा और अपनी नन्ही सी बच्ची को लेकर किराये के एक ही कमरे वाले छोटे से फ़्लैट में रहने आ गई। 

सहानुभूति करने वाले बहुत से रिश्तेदार-मित्र उससे मिलने आये। परन्तु उसकी अपनी ही एक दोस्त द्वारा दिए दिलासे से उसे हौसला तो क्या मिलना था, बल्कि उसकी रही-सही हिम्मत भी कमज़ोर पड़ गई। दोस्त कह रही थी, “तुम्हें अब यही सोचकर सब्र करना होगा कि तुम पहली औरत नहीं जिसके साथ ऐसा हुआ है।”

घर एक दिन सखी का जल गया, 
ठुकराई स्त्री ने देखी उसकी दशा, 
दिलासा देते हुए वो कुछ सकुचाई, 
वही शब्द उसे ही परन्तु कह न पाई, 
‘तुम पहली औरत नहीं . . .’

हुआ यूँ कि कुछ समय उपरान्त एक दिन उस सखी का घर जलकर राख हो गया। पति द्वारा ठुकराई गई उस महिला को जब यह समाचार मिला तो वह भी उसके पास संवेदना प्रकट करने पहुँची। परन्तु उसे वही वाली दिलासा देते हुए वह सकुचाई . . . क्योंकि अपने ही कहे शब्द उसका दुख कम नहीं कर सकते थे कि, “तुम्हें अब यही सोचकर सब्र करना होगा कि तुम पहली औरत नहीं जिसके साथ ऐसा हुआ है।”

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