और हल मिल गया
मधु शर्मा
“इन पिछले चन्द महीनों में ही आपसे इतनी घुलमिल गई हूँ, इसलिए सूज़न, आपसे यह सवाल पूछने की हिम्मत कर रही हूँ . . . मुझे उम्मीद है कि आप बुरा नहीं मनाएँगी!” स्नेहा ने चाय की अंतिम चुस्की लेते हुए अपनी इंग्लिश पड़ोसन से कहा। आज उसने सूज़न को फ़ोन करके अपने इस घर को नये सिरे से सजाने हेतु सलाह लेने के बहाने बुलाया था।
“हाँ हाँ, पूछो . . . लेकिन सिर्फ़ मेरी उम्र या मेरी आमदनी को छोड़कर,” सूज़न ने स्वभावानुसार खिलखिलाते हुए कहा।
स्नेहा सूज़न के समीप आकर बैठ गई और बोली, “मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि हम दोनों के अपार्टमेंट जुड़े होने की वजह से हमारी जान-पहचान इतनी अच्छी दोस्ती में बदल गई है . . . लेकिन मैंने देखा है कि आप न तो किसी के यहाँ आती-जाती हैं, और न ही किसी का आपके यहाँ आना-जाना है। हॉस्पिटल में डॉक्टर की जॉब करने की वजह से अलग-अलग शिफ़्ट के बाद जब भी घर लौटती हूँ तो मैंने कई दफ़ा यह बात नोट की है।”
सूज़न स्वयं से लगभग तीस वर्ष छोटी आयु वाली स्नेहा के मुख से स्वयं के जीवन का रहस्य खुलता देख धक-सी रह गई। वह तो सदा यही समझती रही थी कि उसके हमेशा मुस्कुराते चेहरे के पीछे छुपे हुए उसके अकेलेपन का दर्द कोई भी पढ़ नहीं पाता होगा। परन्तु अगले ही पल ख़ुद को सँभाल कर वह सहज स्वर में कहने लगी, “स्नेहा डियर! तुम अभी इस देश में नयी हो . . . धीरे-धीरे जान जाओगी कि यहाँ लोग रिटायर होने के बाद इसी भाँति अपनी ही में मस्ती में अकेले ज़िन्दगी गुज़ारना पसन्द करते हैं। जैसा कि तुम्हारे भारत में भी तो यह बात आम हो गई है . . . तो यहाँ भी बच्चे अपनी-अपनी पढ़ाई ख़त्म कर कहीं और नौकरी करने निकल जाते हैं। उसके बाद शादी-ब्याह करके या अपने साथी के साथ नया घर लेकर वे अपनी गृहस्थी बसा लिया करते हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वो अपने माँ-बाप को हमेशा के लिए छोड़ गये हैं। प्रत्येक वीकैंड न सही लेकिन फिर भी उनका आना-जाना लगा रहता है। वैसे भी ये रिटायर्ड लोग कभी किसी कॉफ़ी-मॉर्निग, या किसी न किसी डे-सैंटर में बड़ी उम्र के लोगों के लिए आयोजित क्लब में जाकर अपना टाइम पास कर लिया करते हैं। यहाँ पाश्चात्य देशों में दोस्त-सहेलियों के घर नहीं जाया जाता . . . हाँ यदि मिलने का मन हो तो किसी रैस्टॉरेंट या कैफ़े में ही चाय, कॉफ़ी या लन्च वग़ैरह के लिए मिल-मिला लिया करते हैं।”
“चलिए, वो तो मैं मान लेती हूँ लेकिन मैंने आप से कभी नहीं सुना कि आप भी इन जगहों पर आती-जाती हैं . . . क्यों?”
“मुझे इसी तरह रहने की आदत हो गई है . . . और अच्छा भी लगता है। जब जॉब भी करती थी, वहाँ भी सभी से केवल काम से ही संबंधित बात किया करती थी। मेरे पति का भी स्वभाव मुझ जैसा था . . . लगभग सात साल पहले उनका दुनिया को छोड़ जाने के बाद भी कुछ भी नहीं बदला। भगवान ने मुझे बच्चों से भी नहीं नवाज़ा . . . और मेरा एक ही भाई है जो अपने पार्टनर के साथ कभी-कभार क्रिसमस पर चंद-एक घंटों के लिए मिलने आ जाया करता है।”
इस बात को आगे न बढ़ाने का सोचती हुई सूज़न बोल उठी, “मैं अकेली तो हूँ लेकिन अकेलेपन का शिकार नहीं हूँ . . . वो कहते हैं न ‘मेले में अकेला, अकेले में मेला’। हाँ, घर-गृहस्थी या राशन-पानी की शॉपिंग के बहाने हफ़्ते में दो दिन घर से बाहर ज़रूर निकलती हूँ . . . ” और यह कहते-कहते बहुत रोकने पर भी उसके आँसू टपक पड़े।
स्नेहा झट से सूज़न का हाथ अपने हाथों में लेकर बोली, “आय'म सॉरी सूज़न, मेरा मक़सद तुम्हारा दिल दुखाने का बिल्कुल भी न था। मुझे तो यह बताना चाह रही थी कि हमारे हॉस्पिटल में बीसियों वॉलियंटर्स (स्वयंसेवक) हम हॉस्पिटल वालों का हाथ बँटाने आते हैं। उनमें से कुछ तो सप्ताह में एक दिन और कुछ लोग चार-चार दिन, और वह भी केवल तीन-चार घंटों के लिए, आ जाते हैं। मैंने जिस किसी से भी बात की तो यही जाना कि वे अपनी-अपनी रिटायरमेंट के बाद जब कुछ समय बाद बोर होना शुरू हो गये थे तो उन्होंने यह काम चुन लिया और अब वे बहुत ख़ुश हैं। कुछ वॉलियंटर्स रोगियों से बातचीत करके उनका अकेलापन दूर करते हैं या फिर उनके और उनके मेहमानों के लिए चाय-कॉफ़ी सर्व करते हैं। इस बहाने तैयार होकर घर से बाहर निकलने का और दूसरे लोगों से मिलने-मिलाने का उन्हें अवसर मिल जाता है।”
सूज़न की आँखों में चमक देखकर स्नेहा समझ गई कि उसकी योजना काम आ गई। उसे प्रोत्साहित करने हेतु उसने अपनी बात आगे बढ़ाई, “सूज़न, तुम भी यदि चाहो तो एक दिन मेरे साथ चलकर ख़ुद ही देख लेना। यदि तुम्हें वह काम सही लगा तो सोचकर मुझे बता देना . . . मैं उनके ऑफ़िस में तुम्हारा नाम रजिस्टर करवाने के लिए तुम्हारे साथ चल पड़ूँगी।”
सूज़न ने अचानक स्वयं को हल्का महसूस होते पाया। उसने कभी सोचा भी न था कि इतने बरसों की उसकी डिप्रैशन (अवसाद) जिसे वह अकेले हल करने में असमर्थ थी, स्नेहा ने देवी के रूप में आकर उसका हल इतनी सुलभता से उसकी झोली में डाल दिया।
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