बुद्धू बुआ
मधु शर्मा
“बुआ, क्या मैं आपसे अपने मन की एक बात कह सकता हूँ?” विराट ने विदेश में अकेली रह रही अपनी विधवा बुआ के साथ फ़ोन पर इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद अचानक यह प्रश्न पूछा।
बुआ ने सदा की भाँति हँसते हुए कहा, “अरे, यह भी कोई पूछने की बात है। कहो, खुलकर कहो। तुम्हें तो मालूम ही है कि मुझे अपने इकलौते भतीजे के साथ बात करके कितनी ख़ुशी मिलती है।”
विराट ने पहले से ही चुने हुए शब्दों द्वारा अपनी बात कहनी आरम्भ की, “बुआ, मैं एक बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ, कुछ कर दिखाना चाहता हूँ . . . लेकिन इस नौ से पाँच वाली इंजीनियरिंग जॉब में दो साल के बाद भी वहीं का वहीं अटका हुआ हूँ। अब कम समय में ही ढेरों पैसा कमाने वाले एक बिज़नेस में पार्टनरशिप की ऑफ़र (प्रस्ताव) आई है। वो मेरा दोस्त अखिल है न, जिनका बहुत बड़ा बिज़नस है . . . उसके डैडी एक दूसरी ब्रान्च (शाखा) खोलने जा रहे हैं। अंकल ने मुझे ही सबसे पहले पूछा है कि अगर उनकी नई ब्रान्च में मैं पार्टनर बन जाऊँ तो मुझे काम सिखाने में मेरी वह पूरी मदद करेंगे। लेकिन . . . लेकिन मम्मी-पापा ने मुझे यह कहकर साफ़ मना कर दिया कि अच्छी-भली पक्की नौकरी छोड़कर दर-दर की ठोकरें खाने की बेवक़ूफ़ी करने जा रहे हो। इसलिए हमसे तो किसी भी तरह की मदद की उम्मीद न रखना . . . ”
“तो तुम चाहते हो मैं उन्हें समझाऊँ?” बुआ ने पूछा।
“नहीं बुआ, आपसे . . . आपसे कुछ पैसे उधार लेना चाहता हूँ। और मैं प्रॉमिस करता हूँ कि वो पैसे आपको जल्द लौटा भी दूँगा। बस सोच-सोचकर परेशान रहने लगा हूँ कि यह मौक़ा हाथ से निकल गया तो मैं उम्र भर पछताता रह जाऊँगा।”
“वह तो ठीक है, लेकिन पैसे कितने चाहिएँ? मैं तभी तो फ़ैसला कर पाऊँगी न।”
“बुआ, सिर्फ़ . . . सिर्फ़ बारह लाख रुपये चाहिएँ . . .”
“बारह लाख!! नहीं विराट बेटे, यह तो बहुत ज़्यादा हैं! हाँ, तीन-साढ़े तीन लाख होते तो दे सकती थी। कुछ तुम भी तो कोशिश करो और कुछ अपने मम्मी-पापा से माँग कर देखो . . .”
“लेकिन बुआ, न तो मेरे पास इतने पैसे हैं, न ही बिना किसी गारंटी के बैंक मुझे इतना उधार देगा . . . और मम्मी-पापा तो एक रुपया तक न देंगे।”
“सॉरी बेटे, मैं इतना ही कर सकती हूँ . . . देख लो, अगर कहीं ओर से जुटा सको तो मुझे फ़ोन कर देना, मैं भेज दूँगी। आजकल तो मिनटों में ही पैसे ट्रांसफ़र हो जाते हैं। चलो, अपना ख़्याल रखना,” बुआ ने यह कहते हुए बुझे दिल से फ़ोन रख दिया।
♦ ♦ ♦
इस वार्तालाप के दो ही दिन बाद बुआ को विराट की एक ईमेल मिली कि बुआ, गुड न्यूज़ है। अंकल ने अब बड़ी ब्राँच खोलने की बजाय छोटी ब्राँच के लिए एक छोटा ऑफ़िस देखा है जो केवल पाँच लाख में ही किराए पर मिल रहा है। कहीं अंकल किसी ओर को वह वाली ऑफ़र न दे बैठें तो आप आज ही वो साढ़े तीन लाख मेरे अकाउंट में भेज दीजिए। मैं बाक़ी के डेढ़ लाख अपनी जेब से डाल रहा हूँ। रही आपके पैसे लौटाने की बात तो बुआ, आय प्रॉमिस, कि डेढ़ साल में ही सूद समेत मैं आपके पूरे पैसे वापस कर दूँगा।
उसी दिन वीराट के अकाउंट में जब बुआ के पैसे आ गये तो उसके दोस्त अखिल ने उसकी पीठ ज़ोर से थपथपाते हुए कहा, “शाबाश यार, आज तूने बिज़नेसमैन बनने का पहला टैस्ट पास कर लिया। हमें ज़रूरत थी ही तीन-साढ़े तीन लाख की। जब किसी से पैसे माँगने हों तो योजना यही बना कर चलो कि जितने चाहिए उससे तीन गुना माँगो। क्योंकि देनेवाला आधी राशी न सही, एक तिहाई तो देने पर मान ही जायेगा . . . चाहे वह बैंक हो या अपना कोई बुद्धू सगा-सम्बन्धी, जैसे तुम्हारी बुआ!”
♦ ♦ ♦
उड़ते-उड़ते शीघ्र ही भतीजे की वह ‘योजना’ वाली बात बुआ तक पहुँच गई। बुआ सचेत हो गईं, और अपनी वसीयत में से अपने इकलौते भतीजे का नाम कटवा दिया।
बुआ को अपने साढ़े तीन लाख रुपये जाने का दुख बिल्कुल न था। क्योंकि उन्होंने यही सोचकर भतीजे की सहायता की थी कि यदि उसका बिज़नेस ठप्प हो भी जाये तो क्या हुआ . . . कम से कम उसे जीवन भर पछतावा तो न रहता कि काश वह यह अवसर हाथ से जाने न देता!
दुख तो उन्हें केवल इस बात का हुआ कि जो वह बरसों से सुनती-पढ़ती आई थीं कि ‘यदि आपने किसी व्यक्ति के साथ अच्छा-भला सम्बन्ध या बनी-बनायी मित्रता बिगाड़नी हो तो उसे बड़ी सी राशी उधार दे दें' . . . फिर भी बुआ ने इस बात पर कभी गम्भीरतापूर्वक क्यों नहीं विचार किया था!
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