पड़ौसी के पापा की परेशानी
मधु शर्मा
पड़ौसी हमारे ने परिश्रम कर जब ढेरों पैसा कमाया,
फ़ैक्ट्री दूसरी खोल अपने पापा को इंग्लैंड बुलवाया।
कहा उनसे—
” आप कहते थे न ख़ाली बैठे-बैठे बोर हो जाता हूँ!
आपके लिए कुछ काम है, आइए, दिखलाता हूँ।
वर्कर्ज़ कहीं वक़्त यूँ ही ज़ाया न करें चाय-पानी में,
पुरानी फ़ैक्ट्री आज से रहेगी आपकी निगरानी में।”
प्रसन्न हो गए वह, परन्तु दो ही दिन बाद दिखे परेशान,
गोरे कर्मचारियों का क्योंकि उन्हें याद न रह पाता नाम।
मैंने कहा “दुःखी न हों, आसान सा है एक इसका हल,
जैसे करते हैं गोरे हमारा, आप भी नाम दें उनका बदल।”
बस फिर क्या था . . .
पटरिश्या का नाम प्रीतो और पैट्रिक प्रदीप हो गया,
क्रिसटिना से कृष्णा और क्रिस अब कृष्ण हो गया।
चैन्ड्लर है चन्दू और उसका हमनाम चुन्नीलाल है,
ब्रायन बेचारा बनारसी और मैल्कम मुन्नीलाल है।
गैब्रियल बना गब्बरसिंह, शॉन उनके लिए श्यामू है,
फ़िलिप अब फूलसिंह और रेमंड कहलाता रामू है।
ग्लोरिया गौरी, मैरियन माया व मैरी मीरा बन गई,
जनीन ख़ुद को ज़नानी, ऐमली इमली सुन तन गईं।
साठ साल की बैटी को जब वह 'बेटी' कह बुलाते हैं,
भारतीय कर्मचारी हँस-हँस कर लोटपोट हो जाते हैं।
मुन्नी बन मैल्नी, रम्भा सी रूथ उन्हें डिस्को ले जाती हैं,
फ़िश ऐंड चिप्स, पिज़्ज़ा, बर्गर पेट भरके खिलाती हैं।
बॉबी, बिल, टोनी, टॉम के उन्होंने बदले नहीं नाम,
अंग्रेज़ी सिखलाने में क्योंकि वही तो आ रहे हैं काम।
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