जाते-जाते यह वर्ष 

15-12-2024

जाते-जाते यह वर्ष 

मधु शर्मा (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जाते जाते यह वर्ष कानों में धीमे से कुछ कह गया, 
‘मधु’, कर ही डालो जो कुछ भी करने को रह गया। 

सोचा मैंने, चलूँ, चलकर नाता उससे जोड़ा जाए, 
खोज प्रभु की करूँ, मोह-माया से मुँह मोड़ा जाए। 
 
ढूँढ़ने की उसे ठानी तो ग्रन्थ प्रत्येक मैंने पढ़ डाला, 
तुच्छ सी बुद्धि ने मेरी अन्तत: यह निचोड़ निकाला, 
 
कि वह रचयिता प्रकृति के कण-कण में रहता है, 
बाहर नहीं, वह तो हमारे ही भीतर सदैव बसता है। 
 
 (अब उलझन में मैं हूँ कि) 
 
सच है यदि यह तो चारों ओर क्यों हाहाकार मचा है, 
मानव ही मानव को मारे, किस ग्रन्थ में यह लिखा है? 

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