राह जीने की 

01-05-2025

राह जीने की 

मधु शर्मा (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

क्या हुआ रात वो काली थी, 
राह उसकी देखी-भाली थी। 
 
मुँह में ज़ुबान न रखने वाली, 
दुनिया को दे रही गाली थी। 
 
काट दिया गया पेड़ बेचारा, 
सूख गई जब एक डाली थी। 
 
तरस रहे एक निवाले को वो, 
छेद भरी जिनकी थाली थी। 
 
रंग नये दिखलाए ज़िंदगी ने, 
रब की ही रज़ा में ढाली थी। 
 
भटकती फिरे फिर क्यों मधु, 
राह जीने की जो पा ली थी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
सजल
किशोर साहित्य कहानी
कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
चिन्तन
किशोर साहित्य कविता
बच्चों के मुख से
आप-बीती
सामाजिक आलेख
ग़ज़ल
स्मृति लेख
लघुकथा
कविता - क्षणिका
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता-मुक्तक
कविता - हाइकु
नज़्म
सांस्कृतिक कथा
पत्र
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
एकांकी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में