अपराध-बोध
मधु शर्मा
रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी परन्तु नींद थी कि पास फटकने का नाम ही नहीं ले रही थी। आज दिन में जो कुछ भी घटित हुआ, उसे सोचने पर पहली बार विवश कर दिया। यही कि यहाँ विदेश पहुँचते ही उसने कैसे स्वयं को पाश्चात्य सभ्यता के उन्मुक्त वातावरण में ढाल लिया था। और तो और चकाचौंध करने वाली जीवन-शैली से प्रभावित हो उसने आँखें मूँद ली थीं और उचित-अनुचित में अन्तर करना भूल गई थी।
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अपने बीसवें जन्मदिन के अवसर पर वह पुराना दृश्य एक विडियो की भाँति उसकी आँखों के सामने घूमने लगा। मध्यवर्गीय व पुरानी विचारधाराओं पर चलने वाले अपने मम्मी-डैडी से उसने डरते-डरते पूछा था कि क्या वह आगे पढ़ाई के लिए अपनी सहेली लव्ली के साथ विदेश जा सकती है, जहाँ लव्ली की बहन रहती है? उसका जो भविष्य भारत में रहकर बरसों में भी बन न पाएगा, विदेश जाकर वह उसे दो-तीन साल में ही कर दिखाएगी।
वास्तविकता तो यह थी कि उसे उस घुटन भरे जीवन से कुछ समय के लिए छुटकारा चाहिए था। बाद में क्या होगा व कैसे होगा, उस बारे सोचने में उसने समय व्यर्थ करना उचित न समझा।
उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा जब दोनों ने सवाल-जवाब किए बिना झट से अपनी स्वीकृति दे दी। भारत के कितने ही हज़ारों युवा आये दिन यही भेड़-चाल अपना रहे थे व भविष्य सँवारने के बहाने विदेशों की ओर अन्धाधुन्ध दौड़े चले जा रहे थे। सभी का तो मालूम नहीं परन्तु चन्द ही बच्चे अपने माँ-बाप द्वारा उनके लिए लिया हुआ पूरा ऋण उतार देने के साथ-साथ कुछ वर्षों पश्चात माँ-बाप का घर-बाहर भी भरने में सफल हो रहे थे।
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और आज . . . आज उसने अपने तीनों बच्चों के बीच जो मनमुटाव की दीवार बननी शुरू होती देखी, उसकी आत्मा को वह बुरी तरह से झँझोड़ गई।
यद्यपि उसका बड़ा बेटा सात वर्षीय जिम्मी अभी मासूम ही है, लेकिन आज की झड़प की शुरूआत उसी से हुई, “तुम तो बहुत शेख़ी मार रहे थे न . . . कि तुम्हारे डैड तुम्हारे लिए लेटेस्ट कम्प्यूटर गेम लेकर आएँगे लेकिन . . . लेकिन वो तो सिर्फ़ चॉकलेट का यह छोटा सा ही बॉक्स लाए!”
जिम्मी अपने पाँच साल के सौतेले भाई सन्नी को चिढ़ा रहा था। उसकी देखादेखी उन दोनों की छह बरस की सौतेली बहन सोनिया ने भी सन्नी का मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया।
सन्नी दोनों से आयु में छोटा होते हुए भी काफ़ी समझदार था। रुआँसा हो वह बोला, “हाँ हाँ . . . मेरे डैड कम्प्यूटर गेम नहीं ला पाये क्योंकि उनकी वाइफ़ की तबियत ख़राब होने की वजह से उन्हें डॉक्टर के यहाँ जाना पड़ा। जब तक वहाँ से वे फ़्री हुए तब तक दुकानें बन्द हो चुकी थीं।”
सोनिया कहने लगी, “देखो जिम्मी, देखो इसे! कैसे-कैसे बहाने बना रहा है . . .”
सन्नी उसकी बात बीच में ही काटकर ज़ोर से चिल्लाया, “तुम दोनों को जलन हो रही है न . . . क्योंकि . . . क्योंकि मेरे डैड मुझे हर वीक मिलने आते हैं। फिर बाहर खिलाने-घूमाने ले जाते हैं। लेकिन जिम्मी, न तुम्हारे डैड, न ही सोनिया तुम्हारे डैड कभी कोई गिफ़्ट तो क्या लाना, तुम्हें कभी मिलने भी आये क्या? मेरे डैड ही तुम दोनों को अक़्सर मेरे साथ घूमाने-फिराने ले जाते हैं।”
शोर-शराबा सुनकर वह रसोईघर से निकल बच्चों के कमरे की ओर आई, तो देखा उसके तीनों बच्चे आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। मुश्किल से उन्हें अलग कर उसने जब झगड़े का कारण जाना तो वह अपना सिर पकड़कर वहीं बैठ गई थी।
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उसकी पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलते कटी, परन्तु विचारों की लड़ी एक छुरे की भाँति उसके हृदय के बीचों-बीच एक ही जगह वार करती रही। याद करने लगी कि लव्ली ने किस प्रकार आरम्भ में ही उसे पाश्चात्य रंग में रँगती देख व उसकी बेहूदा हरकतों से तंग आकर उसके साथ उठना-बैठना बन्द कर दिया था। और फिर उसके मम्मी-डैडी को लव्ली की बहन द्वारा सूचित किए जाने पर कि वह माँ बनने वाली है, तो उन्होंने उसे प्यार से, फिर धमकियाँ देकर कितना समझाने का प्रयास किया था। लेकिन उसने यह कहकर कि वह उनके इन्हीं दक़ियानूसी विचारों व आये दिन की रोक-टोक से छुटकारा पाने के लिए ही विदेश आई थी, कहकर उसने अपने फ़ोन नम्बर के साथ-साथ वह शहर भी बदल डाला था।
काश उनके दिए संस्कारों को, जिन्हें वह दक़ियानूसी कहती रही, उनमें से एक-आध का ही उसने पालन किया होता . . . परन्तु अब तो पानी सिर से गुज़र चुका था।
वह स्वयं को कोसने लगी। यद्यपि नन्हें-मुन्ने बच्चों से उसे बचपन से ही लगाव रहा है, लेकिन एक जीवात्मा को इस संसार में लाना व फिर एक माँ होने के नाते उचित वातावरण में उस सन्तान के पालन-पोषण का उत्तरदायित्व उसी का तो बनता था। परन्तु जिस राह को वह ‘आज़ादी’ का नाम देकर रात-दिन रंगरेलियों में डूबी आगे बढ़ती गई, वह एक ऐसे नरक में पहुँच कर समाप्त हुई, जहाँ से लौटने का कोई मार्ग न था। एक के बाद एक अमीर व अधेड़ मर्दों से शारीरिक-सम्बन्ध बनाते हुए उसने यह भी न जाना कि जिम्मी का पिता कौन था या सोनिया का भी। और यदि सन्नी के पिता का मालूम भी है तो वह पहले से ही शादीशुदा था।
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यही सोचते-सोचते सुबह कब हो गई, उसे मालूम ही न चला। बोझिल आँखों व भारी मन से उसने खिड़कियों के पर्दे हटाये। कल रात हुई भारी बर्फ़बारी को ठोस में परिवर्तित हुई देख आज उसने बच्चों को उनके कमरे में जाकर सदैव की भाँति प्यार से नहीं जगाया। वह बाहरी हिमपात जैसे उसके भीतर पूरे शरीर व मस्तिष्क में भी जम सा गया था।
सूनी आँखों से तीनों बच्चों को निहारती हुई वह किसी निर्णय पर पहुँच न पाई। हाँ, केवल यह निष्कर्ष अवश्य निकाल पाई कि . . . इसी अपराध-बोध से ग्रसित हो उसे अब यह जीवन काटना होगा कि दोषी तो वही है, परन्तु उसके कुकर्मों का दंड उसी की आँखों के सामने उसके निर्दोष बच्चे भी जीवन भर झेलने वाले हैं।