मोना का मायका

01-09-2023

मोना का मायका

मधु शर्मा (अंक: 236, सितम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

हवाई-अड्डे पर बेटी-दामाद को छोड़ने गुप्ता जी अकेले ही आये थे। दामाद ने जाने से पहले जब उनके पाँव छुए तो उन्होंने उसे ढेरों आशीर्वाद देते हुए हँसकर कहा, “बेटा, हमें भी वहाँ घूमाने के लिए जल्द बुला लेना।” उनकी नई ब्याही बेटी मोना यह सुन शर्म के मारे पानी-पानी हो गई कि चाहे मज़ाक़ में ही सही, डैडी को ऐसा नहीं कहना चाहिए। मेरे पति क्या सोचेंगे कि क्या इसीलिए अपनी बेटी विदेश भेज रहे हैं? 

ससुराल पहुँचते ही मोना वहाँ के तौर-तरीक़े, पूरा घर-बार सँभालने व अच्छी-भली सेहत वाली सासु-माँ द्वारा बैठे-बैठे दिये गये आदेशों व छोटे से लेकर बड़े काम बहुत सलीक़े से करने लग गई थी। लेकिन शाम होते-होते वह बहुत ही थक जाती। पति का होना, न होने के बराबर था। वह तो सुबह जल्दी काम पर निकल जाते, रात गये घर आने पर उनके खाने-पीने, कपड़े वग़ैरह का ख़्याल रखने के अतिरिक्त मोना को पत्नी का एक और भी धर्म निभाना होता, तो थकावट के कारण उसका शरीर साथ न दे पाता। 

महीने बाद ही उसकी सास ने अपने जान-पहचान वालों से कहलवा कर मोना को एक छोटी सी दुकान में काम पर लगवा दिया। उसे प्यार से कहने की बजाय बस आदेश दिया, “यहाँ नौकरी किए बिना गुज़ारा नहीं। ढेरों क़र्ज़ लेकर इंडिया आना-जाना, वहाँ शादी-ब्याह पर इतना ख़र्च, और अब मेरे बेटे के सर पर एक और आदमी यानी तुम्हारी भी ज़िम्मेवारी . . . वो यह सब अकेले नहीं कर पायेगा।”

न चाहते हुए भी मोना उस अनजान माहौल में काम पर जाना शुरू हो गई। अब सुबह छह की बजाय पाँच बजे उठकर सासु-माँ का नाश्ता, दोपहर का खाना बनाकर निबटती तो कई बार नौकरी पर लेट न पहुँचने के चक्कर में ख़ुद का नाश्ता भी न कर पाती। वह उन दिनों की बात है जब न तो मोबाइल फ़ोन का आविष्कार हुआ था, न ही घर-घर में कपड़े-बर्तन वग़ैरह धोने की मशीनें लगी हुई थीं। 

मोना हर माह मायके वालों को एक-आध ख़त लिखकर उन्हें झूठी तसल्ली दे देती कि वह अपनी विवाहित ज़िंदगी से बहुत ख़ुश है। हज़ारों मील दूर बैठे अपने घरवालों को अपनी राम-कहानी बता कर वह उन्हें नाहक़ परेशान नहीं करना चाहती थी। 

उसके मायके से भी जवाब में हमेशा ख़त आता। पिता की आदत अनुसार पूरे दो पन्ने और मम्मी व भाइयों की एक-एक पन्ने में लिखी बातें वो पढ़ कर हँसती भी और रोती भी। 

एक बात लेकिन जो उसे बहुत चुभती थी कि उसके सारे पत्र उसकी सास पहले ख़ुद पढ़तीं। और तो और समीप ही रहने वाली अपनी बेटी व दामाद से भी पढ़वाने के बाद ही वो पत्र उसे देतीं। हालाँकि मोना को विश्वास था कि उसके मायके वाले, रिश्तेदार या सहेलियाँ ऐसी कभी कोई बात ही नहीं करेंगे या लिखेंगे जो कि उसके लिए मुसीबत खड़ी कर दे। लेकिन फिर भी सास-ननद उसके पति के सामने उसका व मायके वालों की छोटी-छोटी बात का बतंगड़ बनाकर उसे खिझाने की कोशिश में लगी रहतीं। 

मोना उनके इस व्यवहार से दुखी तो होती, लेकिन बाहर से उनकी हँसी में हँसी मिलाकर माहौल को ख़ुशनुमा बनाए रखती। बहुत हँसने और मुस्कुराने वाले अधिकतर लोग अपने भीतर की पीड़ा को दूसरों से छुपाने के लिए ऐसा ही करते हैं। 

एक बार तो हद ही हो गई जब उसके डैडी ने ख़ुशख़बरी लिखी कि तुम्हारे बड़े भाई की डिस्टिंक्शन आई है और शहर के ही उत्तम इंजीनियरिंग कॉलेज में उसे बिना किसी परेशानी के ऐडमिशन मिल गया है। लेकिन छोटा मुश्किल से नवीं कक्षा पास कर पाया है। इस बात को लेकर ससुराल वालों ने उसका व उसके भाइयों का बहुत मज़ाक उड़ाया। 

उस शाम मोना ने बातों-बातों में ढंग से मायकों वालों को ख़त लिखा कि “मुझे आपकी लैटर खुली हुई मिलतीं हैं। शायद पोस्टऑफ़िस वाले यह देखने के लिए खोल लेते हैं कि इतनी मोटी लैटर में कहीं अन्दर कुछ गिफ़्ट तो नहीं रखा, जिसे पार्सल के ज़रिए भेजना बनता है! और जब ख़त खुला हुआ मिलता होगा तो मम्मीजी घर पर होने के कारण कहीं पढ़ न लेती हों।”

उस दिन के पश्चात मोना के मायके से लैटर आते तो, लेकिन छोटे-छोटे से ही। लगभग छह महीने बाद एक दिन तबियत ठीक न होने के कारण वह घर पर ही थी कि उसके सामने ही डाक पहुँची। उसमें से एक पत्र उसके पिता का था . . . केवल मोना के ही नाम। उन्होंने पूरे ख़त में छोटे बेटे की शिकायतें ही शिकायतें लिखीं थीं कि वो पढ़ाई में बिल्कुल बेकार है, किसी की सुनता ही नहीं, इत्यादि इत्यादि। बेहतर होगा तुम इसे अपने पास विदेश बुला लो। वहाँ कुछ बन जायेगा, वर्ना यहाँ सारी उम्र धक्के ही खायेगा। 

लेकिन अंत में लिखी उनकी बात पढ़कर मोना सकते में पड़ गई कि ‘वो चाहते हैं कि छोटे के विदेश में सैटल होने पर वो बड़े को बुला लेगा। तब तक मैं भी रिटायर हो जाऊँगा तो मैं व तुम्हारी मम्मी बेटों के पास रहने विदेश आ सकते हैं।’

मोना को समझ नहीं आ रहा था कि वो भगवान को धन्यवाद दे कि यह लैटर किसी और के हाथ नहीं पड़ा। या अपने भाग्य पर रोये कि उसके अपने ही जब उसके विवाहित जीवन में बाधा डाल रहे हैं तो वह अपने ससुराल वालों को क्या दोष दे! 

अधिकतर लोगों के लिए उनकी बहू का सुख-दुख उनकी समझ से बाहर होता है, क्योंकि बहू होती ही पराई है। लेकिन बेटी के सुख के आगे मायके वाले अपने सुख को प्राथमिकता दें तो यह कलियुग की निशानी है। 

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