अचानक से परिवर्तन
मधु शर्मा
नवविवाहिता लावण्या, पढ़ी-लिखी और एक बड़े शहर में पली-बड़ी, अपने सपने को साकार होते देखना चाहती थी। विवाह को बन्धन न मानकर इसकी नींव को सुदृढ़ स्थापित करने का सोचकर ही उसने इस नवजीवन में उल्लासपूर्वक क़दम रखा था। उसे धन-दौलत या किसी भी ऐश्वर्य में कदापि रुचि न थी। वह तो बरसों से अभय को जीवनसाथी के रूप में पाने की और फिर उसके साथ केवल और केवल एक सुखी परिवार की कामना करती आ रही थी। भाग्य ने भी उन दोनों का साथ दिया, जब कोई अड़चन आये बिना उन दोनों का विवाह भी हो गया और वह अपने ससुराल में रहने आ गई।
लावण्या को तो अब चिंतामुक्त हो जाना चाहिए था, परन्तु न जाने क्यों वह अपने ससुराल में कुछ सहमी-सहमी सी रह रही थी। वहाँ उसके अलावा केवल तीन ही तो सदस्य थे . . . उसका पति अभय, सास व ससुर। और फिर उसकी सास तो एक माँ से भी बढ़कर उसके हर सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रख रही थीं। घर के छोटे-मोटे कामों को छोड़कर वह अपनी बहू को किसी और काम को हाथ तक नहीं लगाने दे रही थीं। लावण्या उनका हाथ बँटाने रसोई में आती भी तो वह प्यार से मना कर देतीं।
हनीमून से लौटकर सुबह जब वह सास से नाश्ते के लिए पूछने गई तो उन्होंने प्यार से कहा था, “बेटी, अभी नई-नई ब्याही हो, बाद में सारी उम्र तुम्हीं ने तो यह घर सँभालना है। हाँ, यूँ किया करो कि रसोई में मेरे साथ खड़ी होकर हमारे तौर-तरीक़े सीख लो . . . क्योंकि सभी परिवारों के रहन-सहन, खाना-पीना या रीति-रिवाज़ एक जैसे कहाँ होते हैं! और फिर तुम्हें दो सप्ताह बाद ही अपनी जॉब पर भी वापस जाना है। मैं तो घर पर ही रहती हूँ . . . जब तक मेरे हाथ-पाँव मेरा साथ दे रहे हैं, यह सब सम्भालने में मुझे कोई परेशानी नहीं। तुम बस हमेशा ख़ुश रहना और अपने पति को ख़ुश रखना, तो उसी में हमारी भी ख़ुशी होगी।”
एक रात लावण्या को सास-ससुर के कमरे से ससुर द्वारा अपनी पत्नी को डाँटने की आवाज़ें सुनाई दीं। ऐसा उसने पहले भी दो-एक दिन देखा था। परन्तु आज वह बहुत डर गई तो अभय से पूछ ही लिया, “यह डैडी जी क्यों मम्मी जी को यूँ ही फटकारते रहते हैं? और वो भी तो देवी की तरह मूक खड़ी सिर्फ़ सुनती क्यों रहती हैं?”
अभय अपनी माँ के प्रति सहानुभूति जताने की बजाय पिता की तरफ़दारी करते हुए बोला, “डैडी का ग़ुस्सा लाज़मी है . . . क्योंकि एक पत्नी को वही करना चाहिए जैसा उसका पति चाहता हो।”
यह सुनकर लावण्या सकते में आ गई। सुबह होते-होते उसने निश्चय कर लिया कि वह न तो अपने ससुर को अपनी देवी स्वरूप सास के साथ कोई दुर्व्यवहार करने देगी, और न ही अपने पति को भी वैसा बनने देगी . . . चाहे इसमें अभय का दोष नहीं क्योंकि वह बचपन से यही तो देखता-सुनता आया है, इसीलिए हर पुरुष के इस तरह के व्यवहार को वह सामान्य मानने लगा था।
अगले दिन हर दिन की भाँति दोपहर लन्च के बाद उसकी सास ऊपर अपने कमरे में सोने के लिए चली गईं। ससुर भी अपने नियमित रूप से जब लाउन्ज में समाचारपत्र पढ़ने पहुँचे तो लावण्या भी उनके पीछे-पीछे आ गई। उनके सामने वाले सोफ़े पर बैठते हुए उसने हिचकिचाते हुए कहा, “डैडी जी, आप बुरा न माने तो आपसे कुछ पूछ सकती हूँ? . . . और अगर आपको मेरी बात सही न लगे तो मुझे उसी वक़्त टोक दीजिएगा . . . लेकिन प्रॉमिस करें कि आप न तो मम्मी जी से और न ही अपने बेटे से इसका ज़िक्र करेंगे।”
उसके ससुर ने हँसते हुए जब हाँ कर दी तो वह नम्रता से एक-एक करके प्रश्न पूछने लगी, “क्या मम्मी जी आपको खाना समय पर देतीं हैं? . . . क्या आपको कपड़े धुले व इस्तरी किए हुए मिलते हैं? . . . मम्मी जी क्या कहीं फ़िज़ूल ख़र्च करती हैं? . . . क्या वो बात-बात पर आपसे बहस करती हैं?”
पहले दो सवालों का जवाब हामी भरते हुए और दूसरे दोनों प्रश्नों का उत्तर ससुर ने केवल अपनी गर्दन झुकाकर ‘न’ करते हुए दिया। परन्तु हर सवाल का जवाब देते हुए उनके चेहरे पर एक रंग आ रहा था और एक जा रहा था। और फिर वह झट से उठकर बग़ल वाले कमरे में चले गये। लावण्या उनका लाल चेहरा देख सूखे पत्ते की तरह काँपती हुई वहीं सोफ़े पर बैठी रह गई।
कुछ समय बाद सीढ़ियाँ से सास के नीचे आने की आहट पाकर ही वह उठ पाई और उनके लिए चाय बनाने रसोई की ओर भारी क़दमों से चल दी। शाम को अभय के काम पर से लौटने पर लावण्या रसोईघर के लिए कुछ सामान ख़रीदने के बहाने उस घुटन से बचने के लिए उसके साथ कार में बैठ चली गई। अभय को कुछ खटका भी हुआ कि वह कुछ गुमसुम सी है परन्तु उसके पूछने पर लावण्या ने सिरदर्द का बहाना बनाकर बात टाल दी।
रात का भोजन हमेशा की भाँति घर के नियमानुसार चारों ने चुप रहकर साथ मिल-बैठकर खाया। लेकिन जब लावण्या अपनी सास के साथ झूठे बरतन समेटने के लिए उठी ही थी तो ससुर ने उन तीनों को बैठे रहने का इशारा किया। गला खंखार कर सामने दीवार की ओर देखते हुए उन्होंने धीमी आवाज़ में बोलना शुरू किया,
“मुझे तुम तीनों से कुछ कहना है . . . इन पिछले तीस बरसों में मुझे किसी ने न तो कभी टोका और न ही मेरी किसी बात को मानने से कभी इन्कार किया। जाने-अनजाने में अपनी हर बात मनवाने की आदत कब और कैसे पड़ती चली गईं, मुझे ख़ुद मालूम नहीं। यह मनमानी करने की आदत मेरे मरने तक मेरे साथ ही रहती अगर . . . अगर बेटी लावण्या आज मेरी आँखें न खोलती।”
और फिर लावण्या की ओर मुस्कुरा कर देखते हुए उन्होंने अपने बेटे व पत्नी को लावण्या व उनके बीच दोपहर को हुई पूरी वार्तालाप सुना डाली। अपनी बात समाप्त कर वह पास बैठी पत्नी के कंधे पर हाथ रखकर बोले, “पिछले इतने बरसों से तुम मेरी इन हरकतों को झेलती रहीं . . . क्या तुम मुझे अब माफ़ कर सकती हो? . . . और बेटे अभय, तुम्हें उल्टा पाठ पढ़ाने के लिए तुमसे भी माफ़ी माँगना चाहूँगा। हम बहुत ही क़िस्मत वाले हैं जो हमें इतनी सुलझी और हमारा भला सोचने वाली बहू मिली।”
इतने वर्षों बाद अपने पति में अचानक से इतना सुखद परिवर्तन देख लावण्या की सास की आँखों से टप टप आँसू बहने लगे। ये ख़ुशी के आँसू थे, जिन्हें देखकर उन तीनों की भी आँखें नम हो आईं।
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