दरिया–ए–दिल

 

2221    2212    2221    2212
  
क्या करता है तेरी मेरी, इन बातों में क्या रक्खा है 
आती जाती इन साँसों की सौग़ातों में क्या रक्खा है 
 
ग़ैरों सा हो चाल चलन, बेगानों सा हो रूखापन
व्यवहार में हो न जो अपनापन, उन नातों में क्या रक्खा है
 
तू कहता हैं मेरी जवानी, बहते पानी की है रवानी 
चार दिनों की चाँदनी रातें,  इन रातों में क्या रक्खा है 
 
हरियाली को समझे सावन, तरसे इक इक बूँद को जीवन
मन का मोर न नाच सका तो, बरसातों में क्या रक्खा है
 
नफ़रत की यूँ आग लगाना, आपस में ही लड़ना मरना
कुछ तो सोचो कुछ तो समझो, उत्पातों में क्या रक्खा है
 
कोई हारा कोई जीता, ये तो चालें है शतरंजी 
चाह रहे जीवन की 'देवी', शह-मातों में क्या रक्खा है 

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