स्वयंसिद्धा – ए मिशन विद ए विज़न - 3
देवी नागरानीआज फिर मौका मिला है सोनाली जी से रूबरू होने का, नारी के अंतर्मन की तहों में मची हलचल के उठती लहरों व् तरंगों के बारे में जानने का। कहते हैं, जब तक ख़ुद पाँव गीले नहीं होते, तब तक बाढ़ आई है, पता ही नहीं पड़ता...
देवी नागरानी:
आप नारी के उद्धार के लिए कुछ पुख़्ता क़दम लेकर जहाँ पहुँची हैं, क्या आपको वहीं कहीं आस पास की बस्तियों में बसे, कुछ ऐसे बच्चों को देखा होगा जिन्हें जीवन में कुछ करने के लिए, आगे बढ़ने के लिए सहारे की ज़रूरत पड़ती होगी, एक ऐसा सहारा जो उन्हें थाम पाए, कुछ दूर तक साथ के जाए, जहाँ उनके अँधेरे जीवन में एक रोशनी की किरण उजाला भर पाए?
डॉ. सोनाली चक्रवर्ती:
मैं श्रमिक बस्ती के बच्चों को व्यक्तित्व विकास, रंगमंच व संगीत का प्रशिक्षण देती हूँ।
यह कहते हुए सोनाली जी ने एक कविता पढ़कर सुनाई। कविता क्या सुननी थी, जैसे पास की किसी ऐसी ही बस्ती में चल पड़ी जहाँ शब्दों का नहीं, उन शब्दों के सच का उजाला बरपा था: चलिए आप भी साथ चलें उस प्रांगण में जहाँ सोनाली जी ने अपने सपनों के संसार को साकर किया है।
देवी नागरानी
आप स्लम एरिया में जाकर अपनी क्लास लेती हैं। उन बच्चों के साथ समय गुज़ारती हैं और उन्हें शिक्षित करने का प्रयास करती है। आपको इन बच्चों में और अच्छे घरों के या पूरे संसाधन प्राप्त अमीर घरों के बच्चों में क्या अंतर दिखाई देता है?
डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
मैं इन बच्चों के दिल में सकारात्मकता भरने की कोशिश करती हूँ। उन्हें अमीरी ग़रीबी के दंश से दूर करने की कोशिश करती हूँ। मैं उन्हें बताती हूँ कि ग़रीब पैदा होना अपने हाथ में नहीं है, परंतु ग़ुरबत कि उस उसी दलदल से निकलना ज़रूर उनके हाथ में है।
हर सफल और बड़ा आदमी अपनी मेहनत से आगे बढ़ा है, हर बड़े इंसान की संघर्ष गाथा हमें प्रेरणा देने वाली होती है। मैं यह सारी प्रेणात्मक कथाएँ, व् जो भी नैतिक मूल्य जीवन को सजाते हैं, उन बच्चों को सिखाती हूँ। यही नहीं, इन बच्चों को अपने शो में भी लेती हूँ, उन्हें बड़े-बड़े मंचों तक भी ले जाती हूँ, जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता रहे।
मैंने पीएच.डी. करने के बावजूद कहीं नौकरी नहीं की, इसलिए कि मैं इन लोगों को अपनी सेवाएँ दे सकूँ जिन्हें सच में मेरी ज़रूरत है।
देवी नागरानी
इन स्लम एरिया के बच्चों के लिए जो क्लास चलती है उसकी रूप-रेखा की कुछ झलकियाँ अपने पाठकों के साथ साँझा करें?
डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
"कच्ची धूप" यह मेरी स्लम क्लास का नाम है।
रंगमंच कार्यशाला के बाद जो कि हमने हल्की बरसात से लेकर चिलचिलाती हुई धूप तक में खुले आकाश के नीचे प्रैक्टिस की थी। एक टूटे-फूटे मंच पर उसके मंचन करने की बारी आई। उस समय मैंने आमंत्रण पत्र के रूप में यह कविता लिखी थी—
इस आबादी के बच्चे
इस आबादी में भी है
कलाकार बनने की अजीब सी ख़्वाहिश
इस बार ए.सी. हॉल नहीं है, एक मैदान है
जिसमें हमेशा गोबर के ढेर होते हैं
चमचमाती आलीशान कुर्सियाँ नहीं है
जिसको जहाँ जगह मिली बैठ सकते हैं
इस बार जगमगाता हुआ
लकड़ी की पॉलिश वाला मंच नहीं है
एक अधूरा बना हुआ चौपाल है
जिसके टूटे कोनों से
भविष्य के सपने दिखाती हुई रौशनी फूटती है
इस बार फूलों के गुलदस्ते जैसे बच्चे नहीं हैं
टोकरी में एक साथ रखे हुए
मौसमी फल जैसे बच्चे हैं
ताज़े और मिट्टी के गंध वाले
इस बार ब्रांडेड कपड़े पहने हुए बच्चे नहीं है
इस आबादी के बच्चों के कपड़ों में
जगह-जगह तुरपाई या सेफ़्टीपिन लगी है
इस बार ये बच्चे ए.सी. के तेज़ न चलने की
शिकायत करने वाले नहीं है
इस बार के बच्चे हल्की-फुल्की
बारिश में भी प्रैक्टिस करते हैं
कहते हैं "इतना सा पानी तो घर में भी टपकता है"
इस बार के बच्चे रोज़ ब्रेकफ़ास्ट में
अक्सर ब्रेड बटर होने की शिकायत नहीं करते
ये बच्चे एक समोसा भी देने पर आधा
अपने भाई या बहन के लिए ले जाते हैं।
आश्चर्य किंतु सत्य इस आबादी के बच्चे
डिप्रेशन, फ़्रस्ट्रेशन, रैट रेस, टेंशन, प्रेशर, कंपिटिशन
फ़्यूचर, कैरियर आदि शब्दों से अभी भी वाकिफ़ नहीं,
ये अभी भी घर में बुआ या नानी के आने पर
स्कूल से छुट्टी मार देते हैं
इनके हाथ में कोई पैसे नहीं होते
तब भी अपने भोजन में से एक वड़ा,
एक लड्डू, दो भजिया या थोड़ी सी सूखी सब्ज़ी
काग़ज़ की पुड़िया में दाब मेरे लिए ले आते हैं
अद्भुत बात
इतने अभाव के बाद भी इनके चेहरों पर
सोने जैसी निख़ालिस हँसी है,
आँखों में विश्वास की चमक है
ये ईश्वर पर यक़ीन करते हैं
अब भी
तबीयत खराब होने पर
यह बच्चे डॉक्टर के पास नहीं जाते
इनकी माँ बैगा के पास झड़वाने ले जाती है
ये सुबह-सुबह लाइनों में लग के पानी लाते हैं
आँगन बुहारते हैं
शराबी पिता से माँ की रक्षा भी करते हैं
बर्तन माँजते हैं
होमवर्क न करने पर स्कूल में डाँट खाते हैं
मध्याह्न भोजन की आशा में
फिर भी डटे रहते हैं और
शाम को रंगमंच की विधाएँ सीखने आते हैं
मैं सोचने लगती हूँ
सुबह से इतने पात्र निभाने के बाद
मैं इनमें कौन से पात्र को जगाऊँ?
इस आबादी के कच्चे गालों की हँसी
फिर मुझे सोचने पर मजबूर करती है
दुनिया अभी भी सुंदर है
— (डॉ.सोनाली चक्रवर्ती)
देवी नागरानी
इस सामाजिक कार्य के लिए जानी-मानी शख़्सियत होने के नाते, अपनी ज़ात के लिए आपने इस प्रथा को भी मंचासीन किया है, इस से आप समाज को, समाज के नारी वर्ग को क्या सन्देश देना चाहती हैं।
डॉ. सोनाली चक्रवर्ती
मैं अपनी पढ़ी-लिखी, खाते पीते घर की दुल्हनियाँ से कहना चाहूँगी, नौकरी करना यदि उनकी मजबूरी नहीं, तो वह अपनी शिक्षा का इस्तेमाल केवल घर बैठकर न करें, उन्हें भी लाभ दें जिनको उसकी ज़रूरत है। ग़रीबों को, वंचितों को, अपने आसपास की लड़कियों को, महिलाओं को शिक्षित करने में अपनी विद्या का सफल सदुपयोग करें। मैंने कभी भी काम पैसा कमाने के लिए नहीं किया, मैं अपने साथियों से भी यही अपेक्षा करूँगी। यदि आप नौकरी करते हैं, किसी बड़े पद पर सुशोभित है तो अपने आसपास की महिलाओं की समस्याओं को समझें उनके अधिकारों की लड़ाई जारी रखें, उन्हें कर्मचारी के रूप में उचित स्थान दें, ताकि वे अपने सपनों को लेकर आगे बढ़ें, स्वाभिमान के साथ उस राह पर जो स्वयंसिद्धा ने उनके लिए उनके सामने बिछाई है।
आख़िर न कहकर एक नया आग़ाज़ कहें, संकल्प कि निष्ठा ज़रूर रंग लाती है। प्रयास अब भी सतत जारी है– देखिए क्या हुआ जब श्रमिक बस्ती के बच्चों ने मुहिम छेड़ी, अंधविश्वास, जादू-टोना, टोनही प्रकरण, बाल-विवाह, शराब, शादी का झाँसा के ख़िलाफ़।
डॉ.सोनाली चक्रवर्ती डायरेक्टर "स्वयंसिद्धा" ए मिशन विद ए विज़न की क्लास "कच्ची धूप" के बच्चों ने प्रस्तुत किया नाटक "नासूर"
बच्चों के अभिनय ने किया दंग–
https://youtu.be/2jCib1HbwM4
इसीके साथ मैं, डॉ. सोनाली जी को हार्दिक बधाई व् मंगल कामना के सुमन पेश करते हुए यही दुआ करूँगी कि इन रौशन राहों पर चलने वालों के दिलों में उजाले भरते हुए योगदान के लिए शत शत नमन। आज गुरु पूर्णिमा भी है, यह कार्य भी गुरुकृपा का प्रतिफल है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-