दरिया–ए–दिल

 

2122    1122    1122    22
 
ख़ुद की नज़रों में कभी ख़ुद को उठा कर देखो
आईने से तो कभी आँख मिलाकर देखो
 
औरों की ओर उठाते हो उँगली अक्सर
अपनी कमज़ोर नसों को भी दबा कर देखो
 
इक तराज़ू में कभी तोलो न इसको उसको
झूठ को सच का तो आईना दिखा कर देखो
 
जिसको दुत्कार रही दुनिया उसी बेबस को
हैसियत जाने बिना उसको उठा कर देखो
 
हार अपनों की हक़ीक़त में है हार अपनी ही
हौसला अपना इस हालत में बढ़ाकर देखो
 
हैसियत उसकी है क्या ये भी पता कर लो तुम
बूँद पानी की समंदर में मिलाकर देखो
 
हो महल, ताजमहल और या झुग्गी अपनी
अपनी आँखों में सदा सपने सजाकर देखो
 
आज़माइश पर उतर आती है ग़ुर्बत भी कभी 
तुम किसी भूखे को खाना तो खिलाकर देखो
 
घर सुदामा के जो आए थे कन्हैया ‘देवी’
क्या किया उसने ज़रा यादों में लाकर देखो

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