दरिया–ए–दिल

 

2122    1122    1122    22
 
मैं जहाँ के सभी गुलशन या समंदर देखूँ
फूल तितली या रखा सीप में गोहर देखूँ 
 
इस गरजती हुई बारिश में सिसकती चीखें
वो सुनूँ या ये उफ़नता सा बवंडर देखूँ
 
कैसा बरपा है क़हर, ज़र्द है हर इक चहरा
कैसे चेहरों पे लिखे डर का वो अक्षर देखूँ
 
घर बहे, साथ में उनके वो बहे लोग सभी
बिन कफ़न बहती उन लाशों का मुक़द्दर देखूँ
 
नाख़ुदा कश्ती किनारे है लाया सच की
बस ख़ुदा की है करामत वो ही मंज़र देखूँ
 
सोच टकरा के हक़ीक़त से हुई चकनाचूर
गूँज वीरानों में उसकी भी तो सुनकर देखूँ 
 
सामने ‘देवी’ खड़ा है वो जो बनकर क़ातिल
मैं उसे देखूँ या हाथों में वो ख़ंजर देखूँ

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