दरिया–ए–दिल

 

1222    1222    1222    1222 
 
दिले-नादां सँभल कर भी चले हैं किस ज़माने में
मज़ा आता है टकरा कर वहीं पर चोट खाने में
 
परिंदे आशियाँ अपना बनाने में जुटे सारे
लगेगी अब उन्हें कुछ देर बस तिनके जुटाने में
 
ख़ुदा की थी नज़र जिन पर सलामत आशियाँ थे वो
कसर वर्ना न छोड़ी बर्क़ ने उनको जलाने में
 
अँधेरों ने किया है बेनक़ाब उनको यहाँ यारो
उजालों से जो घबरा कर लगे ख़ुद को छिपाने में
 
लिखी थी वक़्त ने जो दिल की दीवारों पे तहरीरें
रहेगा वक़्त भी नाकाम अब उनको मिटाने में
 
किया अपनों ने ही बदनाम उस मासूम को नाहक़
सगाई जिसकी होनी थी किसी ऊँचे घराने में
 
तड़पती भूख के आगे रखे सैय्याद ने दाने
ये लालच काम आया उन परिंदों को फँसाने में
 
कहाँ वो बदमिजाज़ी है, कहाँ मगरूरियाँ ‘देवी’
रही जो आज़माती ज़ोर बेबस को झुकाने में

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