दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    2122
 
ग़म का सागर कैसे पीते प्यार में जो दम न होता
होती मुश्किल और भी, दिल अश्के-ग़म से नम न होता
 
जब भी गुज़रे हम वहाँ से याद की आँखें हुई नम
यूँ न होता याद में गर, प्यार का मौसम न होता
 
ख़ुशनुमा उन मंज़रों की यादें दफ़नाई गई हैं
याद में ताज़ा उन्हें रखते, तो ये मातम न होता
 
उड़ते उड़ते हो के घायल गिर पड़ा ऊँचाइयों से
उसके पर टूटे थे, वरना पंछी यूँ बेदम न होता
 
होती बेमतलब जुदाई और मिलन की दास्ताँ 
इक नदी का दूसरी से गर कभी संगम न होता
 
थे परस्पर गर्दिशों के क़ाफ़िले राहों में साथ
मर गए होते हमारा अज़्म जो मोहकम न होता
 
घर से बाबुल के विदा होती न यूँ रोती हुई वो
माँ के आँचल का जो ‘देवी’ बीच में रेशम न होता
 
अज़्म=इरादा; मोहकम=पक्का

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