दरिया–ए–दिल

  
इन्द्रधनुष-सा रंग रंगीला याद आया है बचपन मुझको
पहने झीनी चुनरी-लहंगा, याद आया है बचपन मुझको
 
खेतों में चारों ही जानिब फ़स्ल पकी थी सोने जैसी
 उस जैसा ही लहराता सा याद आया है बचपन मुझको
 
फूलों के ज़ेवर पहने जब शोख़ जवानी नाच रही थी
दर्पण में जो ख़ुद को देखा, याद आया है बचपन मुझको
 
कजरारी उन आँखों से जब मैंने चोर की चोरी पकड़ी
तिरछे नयनों से जो देखा, याद आया है बचपन मुझको
 
उँगली थामे बाबा की मैं, मीलों दूर निकल आयी जब
हाथ था छूटा, दिल था धड़का, याद आया है बचपन मुझको
 
तारों की आँखों में आँखें डाल के नित-नित मैं तकती थी
शर्मो हया से टिम-टिम करता, याद आया है बचपन मुझको 

<< पीछे : 94. जूझा तब तब वो अपनी ख्वाइश… आगे : 97. अपनों के बीच ग़ैर थे उसको… >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कहानी
कहानी
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो