आजादी की कीमत

15-02-2016

आजादी की कीमत

देवी नागरानी

जिंदगी जितनी ज़मीन के ऊपर है
उतनी ज़मीन के नीचे भी है।

गीता अभी तक जाग रही थी, रात के बारह बज रहे थे और वह उस रात के सनाटे में सुन रही थी सिर्फ अपने दिल की धड़कन! उसकी जिंदगी की वीरानी अब उसे डस रही थी, क्योंकि उसे इसी तरह तन्हाई को हर रात जीना पड़ता था। ज्यों ज्यों दिन गुज़रते जा रहे थे, यह रात की वीरानगी गहरी होती जा रही थी, कोई आशा की किरण कहीं नजर नहीं आ रही थी, जहाँ से चलकर वह अपने पति राकेश को पाने की राह ढूँढ पाये। रात के सन्नाटे में कहीं दूर से किसी ढ़ुन कि गूँज उसके कानों में जैसे गर्म शीशा उँडेल रही थी......

ज़िंदगी की राह में दौड़ कर थक जाऊँ मैँ
पास तुमको पाऊँ मैं, पास तुमको पाऊँ मैं।
 
इस की चाहत, उस की चाहत, दिलकी ये हालत बनी
राहतों में भी न राहत, दिल की ये हालत बनी
मुस्कराके भी न गर मुस्का सकूँ तो रोऊँ मैं
पास तुमको पाऊँ मैं, पास तुमको पाऊँ मैं।

जिस राह पर वह चल निकला था, वहाँ अच्छे घर की माँ, बेटी, बहन अपने अंदर के जमीर को मारकर ही पहुँच सकती थी। उस चौखट पर सिर्फ जाने की इजाज़त मिलती है लौट आने की नहीं। यहाँ उजाला पनपता है अँधेरों में, रात की गहराइयों में और जैसे जैसे रात आगे बढती है आवाजें खनकने लगती है, पैसों की, घुँघरुओं की, व मदहोशी की। राकेश भी इन्हीं राहों पर चलते चलते कहीं खो गया है, पर गीता अपने उसूलों की कुर्बानी के लिये बिलकुल तैयार न थी और न होने की सोच सकती है। चाँदी की चमक, रौशनी की दमक उसके ज़मीर को इतना अँधा नहीं कर पाई है, जहाँ वह खुद अपने उसूलों का सौदा करे सके। कोई न कोई संस्कार अब भी उसमें कूट कूट कर भरा हुआ था जो वह अपने आप को ऊँचाई पर न पाकर भी इतना नीचे नहीं गिरा सकी, यही उसकी सज़ा बनता जा रहा है। दिन ब दिन रात का अहसास उसे खोखला कर रहा है, जिसे वह बखूबी महसूस कर सकती है इस राह की अँधेरी मंजिल को जो, उसके किस्मत के सितारे को डुबाने के लिये काफी है।

आज एक महीने से यह सिलसिला शुरू है और हर रात जब वह एक नये सूरज के उदय होने कि प्रतीक्षा में ऊँघने लगती है तो लगता है जिंदगी कराह रही है, उम्र झुलस रही है और वह खुद उस खोखलेपन में जी रही है।

"राकेश आज पार्टी में जाना है, याद है ना?"

"किस पार्टी में जाना है गीता? कल ही तो गये थे।"

"वो रोमा ने बहुत बड़ी पार्टी रखी है, सब कपल्स वहाँ आयेंगे, नाच गाना और खाना पीना..! प्लीज़ चलोगे ना?"

"क्या ज़रूरी है हम हर पार्टी में शामिल हों, ना नहीं कह सकती?"

"ना अच्छा नहीं लगता ना कहना, मेरी बरसों पुरानी दोस्ती है उनसे, प्लीज़ राकेश ना मत करो। दोनों साथ ही चल रहे है, मैं कहाँ अकेली जा रही हूँ जो तुम आने के लिये राज़ी नहीं होते, हफ्ते में एक बार जाने से कुछ नहीं होगा। प्लीज़।"

"गीता यह बात नहीं है, हम मध्यम वर्ग के लोग है और इस तरह की रवानी हमारे लिये कुछ ठीक नहीं है। एक बार, दो बार पर अब तो आदत सी बनती जा रही है, ये मुझे अच्छा नहीं लगता तुम्हारी उन सहेलियों के साथ इस तरह घुलमिल जाना, उनके हाथ से हाथ मिलाना और उन बाहों में......।"

"राकेश कहाँ उलझ कर रह जाते हो, अगर ज़िंदगी में यह थोड़ा बहुत मनोरंजन न हो तो ज़िंदगी बेमानी लगने लगेगी। दिन भर आफिस के काम के बाद घर का काम ही हमारी दिनचर्या है, किसी रात एक माहौल जीवन को रंगीन बनाने का मौका देता है वह भी हम यूँ ही गँवा दे ये तो ठीक नहीं है ना? चलो ज्यादा मत सोचो, हाँ कह दो तो मैं रोमा को हाँ कह दूँ।" और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये फोन पर सहेली से कह दिया कि वह और राकेश पार्टी में आ रहे हैं।

रात सरकती जा रही थी, रोमा के बड़े फ्लैट के टेरेस पर रंगीनी फैली हुई थी, आसमान में सितारे झिलमिला रहे थे और नीचे फर्श पर रोशनी में लड़खड़ाते पाँव थिरक रहे थे। मदहोशी का आलम, आँखों में सुरूर, बाहों की गर्मी नर्म नर्म साँसों में समा रही थी। राकेश रीना को गले लगाये झूम रहा था, गीता अजय की बाहों की शान बनी थिरक रही थी, और रोमा किसी और के पति की बाहों की शोभा। इस पार्टी का चलन यही था, सब अपने अपने पार्टनर नित बदल लिया करते थे। अजय रोमा का पति था और वह गीता को एक कली की तरह अपनी बाहों में लिये महफूज़ी से उस की महक को लूटता रहा तब तक जब तक सुबह की पहली किरण फूट कर अपनी कड़ी नज़र सब पर न धर पाई। दिन के उजाले ये बर्दाश्त नहीं करते कि यह नंगा नाच आम होता रहे.. बस सब अलग अलग होकर अपने अपने घरों की ओर बाय बाय करके रवाना हो गये।

चार पाँच दिन गुजरे तो रीना के घर पार्टी का न्यौता था मेसेज के रूप में।

शाम को काम से लौटते इस बात को लेकर गीता और राकेश के बीच गर्मा गर्मी हुई, तकरार हुआ और अंत हुआ लड़ाई पर।

"मैं बिलकुल भी नहीं चाहता कि हम ऐसी पार्टियों में जायें जहाँ मुझे तुम्हें किसी और की बाहों में देखना पडे़ और मैं किसी और की बाहों में झूलता रहूँ।"

"राकेश फिर वही बात‍‍, यह तो पार्टी का नियम है, यह तो हमें पता ही है और हम अपनी मर्जी से इसमें शामिल होते हैं तो इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है।"

"नहीं मुझे यह बर्दाश्त नहीं होता, अगर चाहो तो तुम जाओ पर मैं बिलकुल नहीं जा पाऊँगा। कहो तो मैं अजय को फोन करूँ कि वो तुम्हें आकर ले जाये।"

छटपटा उठी गीता इस करारी चोट पर, उसके तन मन में एक चिंगारी लग गई। यह घात उसके शरीर पर नहीं पर उसकी आत्मा पर हुआ जिससे वह तिलमिला गई और बिना किसी सोच विचार के चली गई रोमा और अजय के साथ पार्टी में, जहाँ रात भर की रौनक के बाद जब दिन की रोशनी उसे वापस घर वापस लाई तो यहाँ की चौखट उसे स्वीकार करने को तैयार न थी। जैसे ही अजय और रोमा उसे घर के पास छोड़ने के लिये कार रोकी तो दरवाजे़ पर लगा बड़ा ताला उसका स्वागत कर रहा था। चाबी न ले जाने के कारण अंदर जाने की ना उम्मीदी उसके लिये दूसरा प्रहार था, और फिर वापस उन्हीं के साथ लौट जाना एक अंतिम तमाचा।

दिन की रोशनी में सबकुछ थोड़ा ज्यादा साफ़ नज़र आता है, वह सोचती रही, महसूस करती रही और अपने आप से लड़ती रही, हीनता अंदर में पनपने लगी और नारी मात्र होने से उसकी परिभाषा और भी साकार रूप धारण कर रही थी, पति के कहने पर तैश में आकर अपने घर की दहलीज को लाँघकर पार्टी में जाना मुनासिब ही नहीं , बहुत गलत था। पर राकेश उसे इस तरह सजा देगा यह उसने सोचा न था। दुपहर को उनकी आफ़िस का दफ्तरी घर की चाबी उसे दे गया और राकेश साहब शाम को घर आयेंगे यह कह कर चला गया। गीता तुरंत घर लौटी और बेसब्री से शाम का इन्तज़ार करने लगी। छः से सात, फिर आठ और पल पल गिनकर जब बारह बजे तो राकेश के आने की आहट ने उसमें जान फूँक दी, पर उसकी दाखिला अपने साथ शराब की मस्ती भी ले आई। गीता का दिल धक से थम गया, सोच ने स्थान ले लिया। ये क्या? राकेश अकेला कहाँ गया होगा जो यूँ पीकर लौटा है? पर "चुप्पी" वक्त की माँग थी शायद यह समझकर दोनों ही चुपचाप जाकर आरामी हुए।

सुबह दोनों निसदिन की तरह उठे, अपना अपना कार्य पूर्ण किया और आफ़िस गये। दोनों एक ही आफ़िस में काम करते थे, पर दिन भर एक दूसरे से नजरें चुराते रहे, बस "हाँ हूँ" में अपना वार्तालाप करते रहे, शाम को साथ घर लौट आये। गीता कुछ सहमी सी रसोईघर सम्भालने की कोशिश कर रही थी और ८.३० टेबल लगाकर राकेश को आवाज़ दी।

"राकेश चलो खाना खा लो।" दोनों ने खाना खाया पर ९.३० के करीब राकेश फिर तैयार होकर बाहर जाने को था तो गीता ने पूछ लिया। 

"मैं दो तीन घंटों में आता हूँ.." यह कहकर वह तीर की तरह बाहर निकल गया और वह देखती ही रह गई उस खुले दरवाजे को जहाँ से उसे अपनी ज़िंदगी बिखर कर बाहर जाती हुई दिखाई दे रही थी। १२.३० के करीब फिर आने की आहट, वही मस्ती की महक और फिर वही सिलसिला चलता रहा। आसार नज़र अंदाज़ करने जैसे नहीं थे, पर और कोई राह भी नहीं थी, जो इन लड़खड़ाते कदमों को रोके। गीता अपने आप को गुनहगार मान रही थी, शायद उसीने गलत नींव पर अपनी खुशियों का महल बनाने की शुरूवात की थी। हाँ सच ही तो था, वर्ना राकेश तो सीधा सादा प्यार करने वाला पति था, जो कभी भी अपनी महदूद खुशियाँ किसी के साथ बाँटना ही नहीं चाहता था। वह गीता को बहुत प्यार करता था और अपनी पलकों पर लिये फिरता था, और इसी कारण अपनी ही आफ़िस में उसे नौकरी दिलवाई ताकि दोनों हम कदम हो एक साथ रहकर अपनी मंज़िल की ओर बढ़ सके।

नियति कब कहाँ करवट बदलती है पता नहीं। गीता की पुरानी सहेलियों रोमा व रीना से मुलाकात व इन पार्टियों में शरीक होने के लिये दावतें, उस झूठी शान शौकत की परिभाषा ने उसकी ज़िंदगी को इस वीराने मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ से वह ज़िंदगी को वापस लाने की नाकमयाब कोशिश में दिन रात जूझ रही है। जितनी सजा वह अपने आप को मिलती पा रही थी उससे कहीं ज्यादा सज़ा राकेश अपने आप को दे रहा था, और इस बात से वह अनजान नहीं थी। अपना सुख चैन गँवाकर हर रात घर से बाहर जाना, मैखाने में बैठ कर लगातार पीना, फिर लड़खड़ाते कदमों से घर आना एक रवैया बनता गया। अब गीता को अपनी गलती का अहसास पूरी तरह से अहसास था और वह मन ही मन शर्मिंदा थी अपनी सूझ बूझ पर जिससे वह राकेश को राज़ी कर लेती थी उन पार्टियों में जाने के लिये। अब उस की मदद करने के लिये कोई नहीं था, सब तमाशाई बन बैठे थे। बस फोन पर पूछ लेते थे हाल या कभी कभार दावत में आने के लिये बहुत मनाने की करते पर गीता ने ठान लिया था "ना करने के लिये", जो उसे अपने पति के समझाने पर.. बहुत पहले करना चाहिये था और इस तरह धीरे धीरे फोन आने कम हो गए और फिर बिलकुल बंद हो गए। अपनी घुटन में जीने लगी थी वह, अपने ही पति के पास होते हुए उससे दूर।

औरत होने के फायदे अनेक पर कुछ मजबूरियाँ भी है साथ साथ। गीता एक स्ट्राँग विल पावर वाली औरत, बिखरती हुई ज़िंदगी को समेटने की राहें खोजती रही, उसके बारे में सोचती रही, पर अभी तक निश्चय नहीं कर पा रही थी कि वह सोचा हुआ कदम ले या न ले। लेती है तो उल्लंघन होता है मर्यादा का, नहीं लेती है तो लुटती है ज़िंदगी। किसे बचाये किसे खो जाने दें इसी कशमकश में कई दिन काम में और रातें उलझनों में बिताती रही, पर एक रात जब राकेश घर से निकला तो वह पहले से ही साधारण रुप में तैयार थी, उसका पीछा करने के लिये, घर से निकल पड़ी। निर्मल, गीता का बहनोई जो पहले ही से पूरी छानबीन कर चुका था, वह भी साथ हो लिया। राकेश घर से निकला और नियमित रूप से बार में पहुँचा जहाँ शोर शराबा, नाच के नाम पर अशलीलता नग्न नाच रही थी। राकेश पर कुछ शराब का सुरूर छाया हुआ था, पर वह दूसरी मेज़ पर बैठी गीता और निर्मल को देखे जा रहा था। फिर अपना ग्लास उठाकर उनकी मेज पर जा बैठा और खिलखिलाते हुए ज्यादा पीने लगा। खनकते पैमानों के आसपास मधुर आवाज में सुनाई पड़ रहे थे एक ग़ज़ल के ये मनमोहक बोलः

मुझे ज़िंदगी में न वो मिला
जिस जाम की तलाश थी
मिलना न था नसीब मेँ
फिर भी बँधी इक आस थी।

समय की हदों के पार नासमझी नाच रही थी, रिश्तों के बँधन अपनी मायने खो रहे थे, रात नाच रही थी अपनी मदहोशी में। काफी वक्त के बाद बेहोशी की हालत में लड़खड़ाते राकेश को सहारा देकर घर ले आये गीता और निर्मल, और उसे आराम से लिटा दिया। फिर निर्मल लौट कर चला गया चला अपने घर की ओर। यह क्रम तीन दिन चला और राकेश उलझन में सोचता रहा "क्या यह सच है या सपना"? क्या गीता सच में उससे इतना प्यार करती है? और क्या उसे अपनी ज़िंदगी की परवाह है? चौथे दिन राकेश घर से निकला और नियमित रूप से बार में जा बैठा, शराब का ग्लास सामने रखा और नशे में होने का नाटक करता तिरछी नजर से अपने आस पास तलाश करता रहा उसी अपने की जो दिल के बहुत ही करीब थी, हाँ उसकी ज़िंदगी थी। हाँ सामने वही तो बैठी थी, निर्मल भी साथ था। राकेश शांत मन कुछ सोचकर एक निर्णय पर पहुँचा, धीरे धीरे उठा और जाकर उनकी टेबल पर बैठा और अचानक गीता का हाथ थाम कर कहने लगा " गीता घर चलें" और टपकते आँसू उनकी राहों को भीनी भीनी बारिश में भिगो रहे थे।

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