खोई हुई पहचान
देवी नागरानीमुझे घर जाने की ज़रूरत है, इससे पहले कि मैं भूल जाऊँ कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ, और जाना कहाँ है? वे भी न जाने कहाँ खो गए, जो मेरी पहचान का कारण थे। मेरा मतलब मेरे माता-पिता से है। हर किसी के जन्मदाता जीवन के उस पार की किसी और सल्तनत में गुम हो जाते हैं। एक इंसान को गुम होने में देर ही कितनी लगती है?
पिता के बाद माँ भी चली गई, जाने कहाँ किस देश और यक़ीनन मुझे भी वहीँ जाना है, उसी घर जाना है, उन सभी को छोड़ कर जाना है जिनकी मैंने कभी परवाह की, जिन्हें चाहा, जिन्हें प्यार किया, पर कहाँ, नहीं जानती?
माँ की मौत के बाद उसी प्यार को परवान चढ़ाया मेरी चाची ने। चाचा अब नहीं रहे। चाची तो एक दूसरे घर की बेटी थी जो ब्याह कर इस घर में लाई गई। तब मैं बहुत छोटी थी। घर में हंगामा बरपा था, शोर शराबा उरूज़ पर था। चारों ओर शादमाने की रस्में थीं, मैं जैसे उस भीड़ में खो सी गई। माँ ने कहा था- मुन्नी आज नए कपड़े पहनेगी, नाचेगी, गाएगी, खुशियाँ मनाएगी। वही सब किया जो माँ ने कहा था क्योंकि चाचा की चाची से शादी हो रही थी। परिवार में एक सदस्य की बढ़ोतरी होने जा रही थी। इसी पारिवारिक संस्था में मैं देखते ही देखते बड़ी से और बड़ी होती गई। बहुत कुछ समझती रही और फिर अचानक परिवार सिकुड़ने सा लगा। पिता के बाद माँ, माँ के बाद चाचा, बस विलीन से हो गए। परिवार में बचे थे बस दो सदस्य, मैं और चाची।
चाची मेरी माँ तो नहीं बन पाई पर सौतेलेपन जैसा भी कोई कसैला व्यवहार न था। मेरी ख़ैर-ख़बर रखती, मेरी ज़रूरतों का ख़्याल रखतीं। कैसे न रखती? सब कुछ तो उसी के हाथ में था। हवेली का वह हिस्सा जो पिताजी व् चाचा के नाम था, यह सदन, चूल्हा-चौका सब कुछ अब उसके नियंत्रण में था। और एक तरह से मैं भी। मेरे बड़ी होने के साथ साथ पाबंदियों की लिस्ट भी बड़ी होती गई।
"अरी शाम ढलने से पहले घर आ जाना, ज़्यादा देर न करना।" चौखट के उस पार जाने के पहले उसके हुक्मनामे की पैरवी का सन्देश आता। मेरे लिए हिदायत पर हिदायत की खींची हुई लक्ष्मण रेखा, किसी भी तरह उस लक्ष्मण रेखा से छोटी न थी जो रेखा लक्ष्मण जी ने सीता मैया के लिए खींची थी।
मालूम नहीं मैं उन हिदायतों पर खरी उतरती थी या नहीं, पर मुझे एक सिकुड़न का अहसास ज़रूर होने लगा। लगा मेरे जीवन का दायरा ही तंग होता चला जा रहा था। घर की छत तो थी, पर खुला आसमान न था। उसी की कमी मन में भीतर कहीं न कहीं कील की तरह धँसी रहती। कैसे पूरा हो यह सपना? अपने सभी तो मुझे छोड़ गए, जाते हुए कुछ सोचा ही नहीं मेरे बारे में, न मेरे लिए कुछ करने के बारे में या शायद वक़्त ने ही उन्हें वक़्त नहीं दिया। वक़्त के ही शिकंजे में जीवन जीना शायद इन्सान की मजबूरी है।
"कहाँ से आ रही हो? कुछ बता कर भी तो नहीं जाती। जब जी चाहा चली जाती हो, और जब जी चाहा लौट आती हो।"
"सहेली के पास गई थी, बताकर तो गई थी।"
"आने का कहकर नहीं गई। चाची के साथ कुछ पल बिताकर उकता जाती हो और मैं हूँ जो सारा समय चिंता में गली जाती हूँ। जीजी होती तो यह चिंता का यह भार मेरे सर न धरा रहता।"
मैं कुछ रुक कर सोचती रही यह कौन से चिंता की बात हो रही है?
"चाची किस चिंता की बात कर रही हो?”
"अरे वही जो एक लड़की के बड़े होने पर माता-पिता के सोचने पर मजबूर कर देती है। आज जीजी व् भाई जान होते तो मैं क्यों यह सर दर्द मोल लेती? तेरे ब्याह के बारे में सोचती? पर भगवान ने मेरी मुश्किल आसान कर दी। आज ख़ुशियों का दरवाज़ा खुला है। घर में आज फिर से हंगामा होगा। शोर शराबा होगा, ख़ुशियाँ नाचेंगी, जीवन की बगिया महकेगी।" और चाची ने जैसे दोनों हाथों से मेरा सदका उतारते हुए अपनी किसी मनचाही ख़ुशी का इजहार किया।
सोच की गिरफ़्त में मैं कुछ समझ न पाई।
"खड़ी खड़ी क्या सोच रही हो, आओ मेरे साथ।" कहकर चाची मुझे अपनाइयत के धागों से खींचती हुई उधेड़बुन के गलियारों से गुज़रते हुए भीतर बड़े सहन में ले आई।
"यह लो शगुन आया है, तेरी मंगनी व् शादी का।"
"क्या?”
"हाँ लड़के वाले एक महीने से पीछे पड़े हुए था। ब्याह तो तेरा कहीं न कहीं तय करना था। ये लोग भी निरंतर आगाह करते रहे और आज शगुन लेकर आ ही गए कि अब से, अभी से रूपा हमारी है, हमारे आँगन की शोभा है।"
"कौन हैं ये लोग चाची?” विस्मय से सामने रखे हुए आईने में अपने व् चाची के अक़्स को देखते हुए मैंने ने पूछ लिया।
:अरी नादान लड़की, और कौन! यही तो लड़के वाले हैं। कौन से ग़ैर हैं, अपने ही नातेदार है, वही दिलगीर और उसके घर वाले। अब तेरा अपना घर बसने वाला है। तुम होगी, तुम्हारा घर वाला होगा, और फिर नई गृहस्थी का आगाज़ होगा। यही तो हर एक लड़की के जीवन का एक अहम् हिस्सा होता है जब वह लड़की से एक गृहलक्ष्मी बन जाती है, घर की स्वामिनी होकर अपने घर परिवार को आगे बढ़ाती है।"
मैं और मेरा घर परिवार, एक सपना सा लगा। दिल तो चाहता था कि चीख-चीख कर कहूँ- "आपकी शादी के बाद तो हमारे घर में कोई आबादी के आसार नज़र नहीं आये।। हाँ सब के सब खो गए हैं, बाक़ी मैं बची हूँ, उसे भी तुम आपने स्वार्थ की सूली पर लटकाना चाहती हो। चाची, क्यों मुझे अपने ही इस घर में अपने साथ कुछ वक़्त बिताने की मोहलत नहीं!”
"कहाँ खो गई? जा जल्दी से हाथ मुँह धो कर कोई अच्छा सा जोड़ा पहन ले। मैं तब तक रसोई में कुछ तैयारी करती हूँ।" यह कहकर चाची रसोई घर की ओर मुड़ी, और मैं अपना सा मुँह लेकर ग़ुसलखाने की ओर बढ़ी। मेरी सोच को समझ तक पहुँचने में, न जाने राह में और कितने रोड़े पार करने थे।
मुँह धोते हुए मैंने दिल और दिमाग़ को तक़रार की स्थिति में पाया। मैं ख़ुद अपनी होने के पहले किसी और की कैसे हो गई? यह कैसा षड्यंत्र है? ये कैसी रिवायत है कि बिना किसी बात के, सलाह-मशवरे के किसी और की हो गई, जैसे मेरा कोई वजूद ही नहीं है। भीतर के सन्नाटे में कुछ थरथराया….
यक़ीनन अब सोच नहीं, समझ से काम लेने का समय आया था। चाची के फूफा के इकलौते बददिमाग़, बिगड़े बेटे दिलगीर के साथ मेरा पल्लू बाँधने की साज़िश थी यह। यह वही दिलगीर है, एक नामी गुंडा, जो कुछ शोहदों के साथ दिन तमाम आवारागर्दी करता, लड़कियों के साथ बेहूदगी करता, बस्ती में लोगों का जीना हराम करता आ रहा था। जिसके नाम का उच्चारण करते हुए लोग उसके मरने की दुआएँ करते रहते हैं। उसके साथ जीवन गुज़ारना मुहाल होगा।
मुझे अपने लिए कुछ तो करना होगा। मेरा ख़ुद पर अख़्तियार है, मैं इतनी बेबस भी नहीं हुई हूँ कि अपने लिए, अपने बचाव के लिए कुछ न कर पाऊँ। अब मुझे घर नहीं, घर के बाहर जाने की ज़रूरत थी। और संभावनाओं की राहें बाद में खोज लूँगी, अभी तो घर से बाहर निकलने की राह खोजनी है। यक़ीनन समय गुज़रते ही यह उम्मीद भी नाउम्मीदी में डूब जाएगी। मैं ऐसा क़तई होने नहीं दूँगी। मैं अपनी पहचान पाकर अपना घर बसाऊँगी, अपने उस साथी के साथ जो आदमीयत के दायरे में रहते, मुझे, मेरे अस्तित्व को, सभी ख़ूबियों व् कमियों के साथ अपनाएगा।
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इसी उधेड़बुन में मैंने एक थैली में कुछ ज़रूरी चीज़ें लीं, बिना किसी आहट व् आवाज़ के, घर से बाहर निकली और दरवाजे के सामने जो दिशा देखी, उसी ओर तेज़ रफ़्तार से दौड़ती हुए एक मैदान में चकाचौंध रौशनी के गुबार के सामने आकर रुकी। मेला लगा हुआ था, शोर-शराबा था, लोगों की भीड़ थी। उसीमें खो जाने की संभावना सामने थी। यही सोचकर मैं उस भीड़ का हिस्सा बनती चली गई। आगे क्या होगा, क्या नहीं होगा हर विचार को स्थगित करके अपने आप को आम नज़रों से बचाते अपने आने वाले ठौर के बारे में सोचती रही।
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ज़िंदगी अब एक ऐसे मोड़ पर आकर रुकी जहाँ अपनी खोई हुई पहचान की तलाश में मुड़ती हुई राहों पर चलना एक मजबूरी बन गई। यह भी याद न रहा कि मैं किस राह में गर्क हो गई थी और इस सच से अनजान कि अब मैं यहाँ हूँ तो कहाँ हूँ, किसके साथ हूँ। और जिसके साथ हूँ वह मेरा कौन लगता है?
आख़िर क्या है उसमें जो मैं चाह कर भी उसके साथ जी रही हूँ। बदतर नामुनासिब माहौल के बीच एक बेतरतीब जीवन, आसपास की अनचाही मैली-कुचैली बदबूदार पसरी हुई बस्ती, फिर भी जी रही हूँ। मौत का इंतज़ार क़तई नहीं मुझे। अगर वह नामुराद आ भी गई तो मैं उसे ख़ुद पर शायद ही हावी होने ही न दूँ। यह भी हो सकता है कि वह मेरी इस दलदल में धँसी ज़िंदगी को देख कर ख़ुद ही मुझ से किनारा कर जाए।
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"अरे तुम यहाँ इस तरह अंधेरे में क्यों बैठी हो? चलो घर के भीतर।" यह उसी की आवाज़ थी, जो मेरा निगहबान बना था।
"……..” निशब्दता जैसे उसकी रिदा बन गई हो। शादाब शाह को यह पता ही नहीं चल पा रहा था कि वह सुन भी रही है या नहीं। उसके हालात कभी भ्रम को हक़ीक़त समझने पर मजबूर करते तो कभी हक़ीक़त को भ्रम।
"मैं तुमसे बात कर रहा हूँ रूपा। शाम ढल कर रात होने को आई है, अब रोशनी में भीतर चल कर बैठो। तुम्हें यूँ बाहर बैठे देख कर आने जाने वालों की नजरें इस चौखट पर उठती रहती हैं"। शादाब बोलता रहा और उसे अपनी ही आवाज जैसे कहीं दूर से किसी शीशे से टकराकर लौटती हुई सुनाई देती, टूटती हुई, बिखरती हुई।
वह थक गया था उसे आवाज़ देते-देते। वह इसी इरादे से उस का नाम ले लेकर ख़ुद को दोहराता रहा कि शायद किसी दिन वह उसकी बात सुन ले, आँख उठाकर पलकें झपके और शायद उसकी आँखों की पुतलियाँ फिर से रक़्स करने लगें।
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इन्हीं आँखों का तो पाँच महीने पहले वह कायल हुआ था, जब पहली बार वह मेले में उससे टकराया था। उसके हाथों में पकड़ी हुई कपड़े की थैली नीचे गिर गई जिसे उठाने के लिए दोनों बरबस झुके। पहल किसने की पता नहीं, पर जब झुकी हुई नज़रें मिलीं तो चुम्बक सी एक जुम्बिश के साथ। नज़रें न ये हटाए, न वो। दोनों यकटक एक दूसरे की आँखों से बतियाने लगे।
शादाब ने ख़ुद को सँभाला। लड़की ने अपनी आँखे उठा कर पलकें झपकीं और फिर उसकी आँखों की पुतलियाँ रक़्स करने लगीं। और वह इस तरह खिलखिलाने लगी जैसे उसने कोई अजूबा देखा हो। शादाब को भ्रम हुआ कि जाने उसकी सूरत को क्या हुआ है, जिसे देखकर वह हँस पड़ी। हड़बड़ाहट में उसने कमीज़ को ऊपर करके चेहरा पोंछ लिया, फिर हाथों से अपने चेहरे को मलने लगा।
अचानक उसे महसूस हुआ जैसे किसी शोर के गुब्बार ने उन दोनों को घेर लिया हो। चार-पाँच लोग थे काले कपड़ों में, सर पर टोपियाँ, जो आँखों व् पेशानी को ढँक पाने में कारगर थीं। उनमें से दो लोग लड़की को पकड़कर घसीटते हुए कुछ दूरी पर खड़ी कार की ओर ले जा रहे थे, और दो शादाब की बाहों को पीछे की ओर मोड़कर काबू में रखने की कोशिश में लगे हुए थे। पाँचवा भागकर कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। बात कुछ कुछ शादाब को समझ आई, उसका दिमाग़ तेज़ी से चलने लगा। देर हो उससे पहले उसने अपनी मजबूत टाँगों का इस्तेमाल करके दोनों को पछाड़ा और ख़ुद कार की ओर दौड़ा। लड़की को कार में धकेलने के पहले ही उसने उन दोनों से हाथापाई करके, लड़की को दाईं ओर भागने के लिए हुकुम दिया। जैसे ही वह भागी पीछे वाले दोनों नौजवान भी उसकी ओर लपके। लड़की चीते की रफ़्तार से ख़ुद को खतरे के दायरे से निकालने के लिए संकेत की हुई दिशा में भागती रही। कुछ ही पल में शादाब जूझने वाले दो पट्ठों को चारों खाने चित करके उसी दिशा की ओर लपका जिस ओर लड़की का रुख़ था। अब उसके सामने तीन परछाइयाँ थी, लड़की के कुछ ही फ़ासले पर दो जवान, और उन दोनों के पीछे वह ख़ुद।
एक दहाड़ मारकर उसने एक छलाँग लगाई और हवा से बातें करता हुआ उन जवानों से भिड़ गया। जोश में आकर मज़बूत जाँघों से दोनों जवानों को निढाल कर दिया। लड़की भागते-भागते थककर चूर होकर लगभग बेहोश होकर गिरने को थी कि शादाब ने उसे अपनी बाहों में भर लिया। बड़ी पेचकश से उसे क़रीब के ढाबे तक ले आकर, पानी मँगवाकर उसके मुँह पर छींटे मारे। जब उसने आँखें खोलीं तो उसी कुर्सी पर बिठाकर पानी पिलाया। वह अब ख़ुद भी पास की कुर्सी पर बैठा और रोटी-साग व् चाय का ऑर्डर देकर लड़की की ओर ग़ौर से देखने लगा। निखरी हुई रंगत, गुलाबी होंठ, कजरारी आँखें, गले में काले मोतियों की माला, तन पर भूरे रंग का सूट, पर पाँव नंगे थे। शायद भागते हुए उसकी अपनी चप्पल कहीं छूट गई थी।
कुछ देर में लड़की ने आँखें खोली और शादाब की ओर एक अजनबीपन के साथ देखने लगी। अब उसकी रक़्स करती हुईं पुतलियाँ थम गईं थीं। उनमें किसी तरह का संचार न था। बिना भाव उसकी आँखें खुली तो थी, पर पथराई हुई, पुतलियाँ बिना किसी हरकत के।
"पल भर में यह क्या हुआ?” शादाब सोचने लगा। वह तो उसकी आँखों पर दिल निसार कर बैठा था। वह जवान था, गरम खून था, अकेला रहता था, पर जोश में होश खोने वालों में से न था।
इतने में बैरा रोटी-साग ले आया। शादाब ने उसका हाथ पकड़ कर थाली में रखे खाने की तरफ़ इशारा करते हुए उसे खाने का आदेश दिया। चुपचाप दोनों ने थोड़ा-थोड़ा खाया और थोड़ी-थोड़ी चाय पी। सामने से आते हुए एक खाली रिक्शे पर नज़र पड़ते ही उसे रुकवाया और दोनों उसमें सवार हुए। शकूर ने रिक्शे वाले को अपना पता दिया। उसका घर एक ऐसी बस्ती में था, जहाँ उस शहर के ‘दादा’ लोग रहते थे। कच्चे-पक्के झोपड़ीनुमा घर, आसपास कुछ कीचड़, घर के भीतर भी फ़र्श पर चटाई बिछी हुई, ज़मीन पर बिखरा हुआ सामान।
शादाब ने भीतर आकर लड़की को नीचे चटाई पर बैठने का इशारा किया।
"तुम्हारा नाम क्या है?” उसके सामने बैठते हुए शादाब ने पूछ लिया। कुछ तो परिचय पाना था पहचान बनाने के पहले। लड़की की ज़ुबान पर ताले रहे! शकूर ने दो तीन बार सवाल दोहराया और जब जवाब नहीं मिला तो वह अपनी असली भाषा में दहाड़ उठा- "साली, पूछ रहा हूँ तेरा नाम क्या है?”
दहाड़ काम कर गई। लड़की ने अपनी आँखें ऊपर उठाई, पलकें झपकीं और फिर उसकी आँखों की पुतलियाँ रक़्स करने लगी। शादाब को लगा जैसे वह अभी खिलखिलाने लगेगी। पर नहीं, उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसे अपनी बाँईं बाँह शकूर के सामने रख दी, जिसपर लिखा था - "रूपा"
वह नाम का पता चल गया, बस पते का पता लगे तो जाना जाय कि वह कौन है, किसके घर की धरोहर है, किसकी बेटी, किसकी पत्नी, कौन है इस के नातेदार?
"रूपा तुम कहाँ की रहने वाली हो, कुछ बताओ?”
अब शादाब के लहज़े में सख़्ती की बजाय नर्मी थी, एक सोज़ था। रूपा ने फिर आँखें ऊपर उठायीं और अज्ञानता के भाव लिए उसकी ओर देखा। शादाब को लगा जैसे वह डरी हुई, सहमी हुई थी।
वह उठा, एक तकिया लेकर उसे देते हुए वहीं लेट जाने का आदेश दिया। वह जैसे ही लेटी उसने रूपा पर एक पुराना मटमैला कंबल डालते हुए कहा, "अब सो जाओ" कहा और ख़ुद खोली से बाहर निकल आया। बाहर चबूतरे पर खम्भे का सहारा लेकर बैठते हुए एक बीड़ी सुलगाने लगा। मस्त मवाली की तरह जिंदगी गुज़ारने वाले इन्सान को क्या पता गृहस्थी क्या होती है, परिवार क्या होता है, घर-संसार क्या होता है?
शादाब तो बचपन से ऐसे दलदल भरे माहौल में दंगे-फ़सादों के बीहड़ में बीड़ियाँ पीते-पीते बड़ा हुआ था। उसे यहाँ तक याद नहीं कि कौन उसके माता पिता हैं, हैं भी या नहीं? औरत जात ने कभी उसके जीवन ने दखल न दिया था। अपने अतीत से अनजान अपनी इस दुनिया में मस्त था। आज वह न जाने क्या सोचकर यूँ ही मेले में शौक़िया सैर करने के विचार से गया और लौटा तो साथ में यह रूप कि रानी "रूपा" उसके साथ थी। इन्हीं ख़्यालों में खोया हुआ वह निद्रा के आग़ोश में समा गया।
जब रात अधिक गहरी हुई तो उसे खोली के भीतर से किसी भयभीत आवाज़ की धीमी-धीमी फुसफुसाहट सुनाई दी। वह रूपा ही थी जो सदमे से सहमी हुई थी और नीम बेहोशी में दिलगीर।।दिलगीर नाम का उच्चारण करती रही और फिर "नहीं... नहीं" झुंझलाहट भरे स्वर में कहते हुए अपनी चादर को खींच कर मुँह तक ओढ़ते हुए नींद के आग़ोश में गर्क़ हो गई।
शादाब अब सोचने लगा "शायद किसी डरावने ख़्वाब का असर हो या दिन की उस घटना का कहीं कोई ताल्लुक़ इससे जुड़ा हो। पर यह दिलगीर तो सुना हुआ नाम लगता है, कहीं वही गुंडा तो नहीं?’ शादाब हर हक़ीक़त से परे था। उसने रूपा को आवाज़ दी, पर कोई उत्तर न पाकर, उसे एकांत में आराम करने के लिए छोड़ वह फिर बाहर लौट आया। रात भर बाहर चबूतरे पर वह ठिठुरता हुआ लेटा रहा। सुबह उठा तो भीतर जाते ही उसकी आँखें अपने ही कमरे को देख कर ठहर सी गईं। रूपा कब उठी थी, पता नहीं। पर चूल्हा जला कर उसने चाय चढ़ाई थी, चटाई व तकिए को सलीक़े से समेटकर एक लोहे की पड़ी हुई ट्रंक पर रख दिया था। बिखरे हुए सामान को सँजोया, ज़मीन पर पड़ी न जाने कितनी माचिस की तीलियाँ उठाईं और कूड़ेदान में डाल दीं। झाड़ू लगाकर, अब अपने घुटनों और एड़ियों के बल बैठ कर वह ज़मीन पोंछ रही थी।
"अरे यह सब क्यों कर रही हो?” कहते हुए शादाब ने चूल्हे के पास जाकर उबली हुई चाय दो प्यालों में छान ली। फिर साफ़ की हुई ज़मीन पर चटाई बिछाई, एक तसरी में दो प्याले रखे और कुछ मट्ठियाँ रख कर ख़ुद चटाई पर बैठ गया।
"आओ अब हाथ धोकर चाय पी लो रूपा।" उसने हाथों को मलते हुए उसे अनुकरण करने के लिए इशारा किया।
रूपा ने सफ़ाई का कपड़ा कोने में फैलाते हुए नल के नीचे अपने दोनों हाथ मलमल कर धोये, लौटकर शादाब के पास ही चटाई पर बैठ गई। कल और आज के बीच के घटना को दुर्घटना मानकर रूपा ने उसे अपने भीतर ही कहीं दफ़ना देने की ठान ली। गुज़रे कल को बुरा सपना मानकर भुलाने में ही उसकी भलाई थी। उसे चाची का कथन याद आया- "अरी नादान लड़की, और कौन! यही तो लड़के वाले हैं। अब तेरा अपना घर बसने वाला है। तुम होगी, तुम्हारा घर वाला होगा, और फिर नई गृहस्थी का आगाज़ होगा। यही तो हर एक लड़की के जीवन का एक अहम् हिस्सा होता है जब वह लड़की से एक गृहलक्ष्मी बन जाती है, घर की स्वामिनी होकर अपने घर परिवार को आगे बढाती है।"
रूपा को आभास हुआ जैसे उसे अपना मनमीत शादाब के रूप में मिल गया था, जो ऐन मौके पर गुंडों व् बदमाशों से उसकी हिफाज़त करने पाने में सक्षम था। अब शादाब ही उसका रखवाला था, वही घरवाला भी। मवाली होते हुए भी उसमें इन्सानियत के सद्गुण भी मौजूद थे। उसे नारी का मान-सम्मान करना आता था। वही उसका असली रक्षक है, और यह उसका घर। वह लड़की से गृहलक्ष्मी, घर की स्वामिनी बनी है और यही उसका घर परिवार है।
रूपा को लगा जैसे उसके जीवन में शादाबियाँ भर गईं हों। "सावन का महीना, पवन करे शोर" सा कुछ भीना-भीना अहसास मन में उभरा। पर यह मेले वाला शोर न था। मन के भीतर लहलहाती ख़ुशियों का शोर था, जो दिल की दीवारों से टकराकर अपने होने का ऐलान कर रहा था, ऐसे जैसे उसने जीवन के तंग दायरे से निकल कर एक खुले आसमान के नीचे आश्रय पा लिया हो।
"आओ रूपा, गरम-गरम चाय पी लो,” कहते हुए शादाब ने मट्ठी का टुकड़ा उठाकर उसके मुँह में डाला और चाय का प्याली उसकी ओर बढ़ाई। रूपा ने एक चुस्की चाय की भरी और पाया कि शादाब उसे प्रेम भरे नैनों से देखे जा रहा था। उसने भी मट्ठी का टुकड़ा उठाकर उसके मुँह में डाला और दूसरी चाय का प्याली उसकी ओर बढ़ाई। शादाब ने बड़ी चाहत से उस चाय वाले हाथ को छुआ, सहलाया और चाय की प्याली लेते हुए एक चुस्की भरी।
उस चुस्की की आवाज़ में जाने क्या था, रूपा ने अपनी आँख उठाकर पलकें झपकीं और फिर उसकी आँखों की पुतलियाँ रक़्स करने लगीं। शादाब की आँखों से दो आँसू लुढ़क आए जो रूपा ने अपनी हथेली में समेट लिए। दोनों की आँखें एक दूसरे की आँखों में अपनी खोई हुई पहचान के अक़्स देखती रहीं।
बस एक ही सच सामने था। दोनों ने शायद इक-दूजे में अपना खोया हुआ अक़्स पा लिया था। रूपा ने अपनी आँखें उठाकर झपकीं, और फिर आँखों की पुतलियों को फिराते हुए खिलखिलाने लगी। दोनों की आँखें गीली थी, एक नई ख़ुशी के साथ उनकी मुलाक़ात जो हुई थी।
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