नारी कोई भीख नहीं
देवी नागरानी
नारी कोई भीख नहीं
न ही मर्द कोई पात्र है
जिसमें उसे उठाकर उड़ेला जाता है
जिसे उलट-पुलट कर देखा जाता है
उसके तन की ख़ुश्बू का
मूल्य आँका जाता है
ख़रीदा जाता है, इस्तेमाल किया जाता है . . .!
तद पश्चात उसे
तोड़ मरोड़ कर यूँ फेंका जाता है
जैसे कोई कूड़ा करकट फेंकता है . . .!
अब अवस्था बदलनी चाहिए
अब वे हाथ कट जाने चाहिएँ
जो औरत को
अपना माल समझकर
आदान-प्रदान की तिजारती रस्में
निभाने की मनमानी करते हैं
यह भूल जाते हैं–-
वह ज़िन्दा है, साँस ले रही है,
आग उगल सकती है . . .।
नहीं! सोच भी कैसे सकते हैं?
वे, जो अपने ही स्वार्थ की इच्छा के
सड़े गले बीहड़ में वास करते आ रहे हैं
गंद दुर्गंध उनकी साँसों में
मांसभक्षी प्रवृत्ति व्यापित करती है
वही तो हैं, जो उसके
तन को गोश्त समझकर
दबोचते, चबाते, निगलते स्वाद लेते हैं
भूल जाते हैं कि
कभी वह गले में
फाँस बनकर अटक भी सकती है . . .!
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