दरिया–ए–दिल

 
2122    2122    2122    2122
 
बेवजह दिल आज मेरा मुस्कुराना चाहता है
एक अनजानी ख़ुशी से खिलखिलाना चाहता है
 
क्यों भड़क उठती हैं ईंटें आजकल दीवारों की भी 
प्यार से आदम गले सबको लगाना चाहता है 
 
बँट रहे हैं आदमी, घर, और दीवारें सभी कुछ
हो अलग सबसे वो अपना घर बसाना चाहता है
 
गाँव के कच्चे घरों से तंग आकर आदमी अब
शहर के पक्के मकानों में क्यों जाना चाहता है
 
अब बुढ़ापे की बने लाठी कहाँ आधार वो
बोझ कोई भी कहाँ किसका उठाना चाहता है 
 
तुमने भी चाहा बहुत कुछ, सीखा, पाया दौर में जो
जान लो इस सच को तुमसे क्या जमाना चाहता है
 
लेने देने की रिवायत से है जो वाक़िफ़ इस जहाँ में 
कुछ सिला, थोड़ी वफाई वो भी पाना चाहता है
 
शहर से अब गाँव को और गाँव से उस धाम ‘देवी’
बांवरा मन आजकल क्यों लौट जाना चाहता है

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