दरिया–ए–दिल

 

2122    1212    22
 
आँख से आँख हम मिला न सके
मुस्कुराकर भी मुस्कुरा न सके
 
ज़ख्म दिल के भी हम छुपा न सके
आईने से नज़र मिला न सके
 
बंदिशों की फ़सीलें ऊँची थीं
लाँघ कर हम उन्हें तो आ न सके
 
बात पर बात जब निकल आई
बिन कहे अपनी बात जा न सके
 
करती गुमराह ग़ैरतें जिनको
रिश्ते नाते वही निभा न सके
 
सर उठाकर चले सवाल यहाँ
आज तक जो जवाब पा न सके
 
वो था बेहूदा और बे-ग़ैरत
उसका बर्ताव हम भुला न सके
 
ये मिज़ाजों की दास्ताँ ‘देवी’
सामने आईने के गा न सके

<< पीछे : 77. ज़िन्दगी है या, ये है धुआँ आगे : 79. जो बात लाई किनारे पे, आस्था… >>

लेखक की कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो