दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
जीने मरने के वो मंजर एक जैसे हो गए
फिर से रहज़न और रहबर एक जैसे हो गए
 
कहकशां ही कहकशां थे सजदे में जो सर झुका
फिर अचानक धरती-अंबर एक जैसे हो गए
 
नेमतें ही नेमतें थी और कुछ तो था नहीं
सीप के मोती व कंकर एक जैसे हो गए
 
जब बरसती आँखें बारिश में रवां थीं दोस्तो
आँसू  नदियाँ और समंदर एक जैसे हो गए
 
दूधिया सी चांदनी जब चाँद बिन फैली वहाँ
मेरे भीतर ‘धरती-अंबर’ एक जैसे हो गए
 
अपने भीतर की खला में मन भटकने जब लगा
सोच सिलवट के बवंडर एक जैसे हो गए
 
थी निशाने पर वह गर्दन जब बलि बकरा चढ़ा
तब कसाई और नश्तर एक जैसे हो गए
 
बेगुनह  ‘देवी’ उठाए पहला पत्थर हाथ में
सुनने वाले ‘लोग-पत्थर’ एक जैसे हो गए 

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