दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122
  
बेवजह होती हैं जब रुसवाइयाँ जी 
ब्याह बिन रह जाती है तब बेटियाँ जी 
 
चोंचले देखो अमीरी के वहीं पर 
ग़ुरबतों की हैं जहाँ मजबूरियाँ जी 
 
भुखमरी होती है क्या पूछो न उनसे 
घर में जिनके रोज़ बंटती रोटियाँ जी 
 
कितने रफ़्फ़ू चादरों में हैं न पूछो 
थरथराती ढाँपने पर सर्दियाँ जी 
 
ग़ौर से शहनाइयों के सुर सुनो तुम 
अपने ग़म की लगती हैं वो सिसकियाँ जी 
 
खामुशी करती है ‘देवी’ गर सुनो तुम 
रात के सन्नाटों में सरगोशियाँ जी
 

<< पीछे : 91. सिसकियों से वास्ता सा हो गया… आगे : 93. देखो समझो फूल काँटे का चलन… >>

लेखक की कृतियाँ

अनूदित कहानी
कहानी
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो