ऐसा भी होता है
देवी नागरानी
कहाँ गई होगी वह? यूँ तो पहले कभी नहीं हुआ कि वह निर्धारित समय पर घर न लौटी हो। अगर कभी कोई कारण बन भी जाता तो वह फोन ज़रूर कर देती है। मेरी चिंता की उसे चिंता है, बहुत है। लेकिन आज उसकी चिंता की बेचैनी मुझे यूँ घेरे हुए है, कि मेरे पाँव न घर के भीतर टिक पा रहे हैं और न घर के बाहर क़दम रख पाने में सफल हो रहे हैं। कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ? जब कुछ न सूझा तो फोन किया, पूछने के पहले प्रयास में असफलता मिली क्योंकि उस तरफ़ कोई फोन ही नहीं उठा रहा था, निरंतर घंटियाँ बजती रहीं, ऐसे जैसे घर में बहरों का निवास हो। जी हाँ, मैं अपनी समधिन के घर की बात कर रही हूँ!
अब तो कई घंटे हो गए हैं, रात आठ बजे तक लौट आती है, अब दस बज रहे हैं। बस उस मौन-सी घड़ी की ओर देखती हूँ, तकती हूँ, घूरती हूँ, पर उसे भी क्या पता कि जीवन अहसासों का नाम है? अहसास क्या होता है? व्यथा क्या होती है? इंतज़ार क्या होता है? इन सभी भावनाओं से नावाक़िफ़ . . .!
और अचानक दिल की धड़कन तेज़ हो गई। फोन की घंटी ही बज रही थी। हड़बड़ाहट में उठाने की कोशिश में बंद करने का बटन दब गया और बिचारा फोन अपनी समूची आवाज़ समेटकर चुप हो गया। मैंने अपना माथा पीट लिया। आवाज़ तो सुन लेती, पूछ तो लेती कहाँ हो, क्यों अभी तक नहीं लौट पाई हो? मैंने अपनी सोच को ब्रेक दी, लम्बी साँस ली, पानी का एक गिलास पी लिया और फिर एक और पी लिया। शांत होने के प्रयासों में पलंग पर बैठ गई, और फोन को टटोलकर देखा, कोई अनजान नंबर था, उसका नहीं जिसका इंतज़ार था। बिना सोचे समझे मैंने वही नंबर दबा दिया। घंटी बजी, बजती रही और फिर बंद हो गई। अब मेरा डर मुझे सहम जाने में सहकार दे रहा था, मेरे हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे, एक सिहरन बिजली की तरह भीतर फैलने लगी। मैंने बटन फिर दबाया, घंटी बजी, किसी ने उठाया और फिर रख दिया। अब मेरी परेशानी का और अधिक बढ़ जाना जायज़ था। रात का वक़्त, बेसब्री से उसका इंतज़ार और बातचीत का सिलसिला बंद, जैसे हर तरफ़ करफ़्यू लगा हुआ हो!
आख़िर फोन की घंटी बजी, एक दो तीन बार . . .! मैंने बहुत ही सावधानी से उसे उठाया, बस कान के पास लाई ही थी कि एक कर्कश आवाज़ कानों से टकराई, “परेशान मत करो, आज वह घर लौटने वाली नहीं। अभी एक घंटे में उसकी शादी हो रही है, डिस्टर्ब मत करना।” बेरहमी से कहते हुए फोन काट दिया और मैं बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, कँपकँपाई और वहीं पलंग पर औंधे मुँह गिर पड़ी।
कौन है यह? किसकी आवाज़ हो सकती है? क्या चाहता है वह, क्यों गुमराह कर रहा है मुझे, मेरी सोच को, और उसको भी, जो मेरी साँसों की धड़कन है? वही तो मेरे जिगर का टुकड़ा है, उसके बिना मेरा जीवन सूना है, अधूरा, अपूर्ण! वह मेरे ज़िन्दा होने का सबब है, और उसी सबब के साथ बेसबब यह क्या कुछ हो रहा है, जिसकी कल्पना मात्र से मेरे बदन में डर, ज़हर बन कर फैलता जा रहा है। ऐसा तो होना ही है, ज़रूर होगा, वह मेरा ख़ून है, मेरे वंश की आख़िरी निशानी, जिसे मैंने सीने से लगाकर पाला, बड़ा किया और उसे छत्रछाया देते-देते मैं ख़ुद एक हरा शजर बन गई। पुराने सड़े गले सब पत्ते झड़ गए, और प्रकृति के हर झोंके की आँच से बचाकर मैंने जिसे अपने आँचल की छाँव दी, वहीं उर्मिला के रूप में एक नया कोंपल उग आया। बारह महीने से बाईस साल तक का अरसा कोई कम लम्बा तो नहीं होता!
अचानक दरबान ख़बर लाया था, बुरी . . . हाँ, बहुत बुरी ख़बर। मेरे अभय और सविता के अंत की, और उनकी आख़री निशानी ‘ऊर्मिला’ को लाकर गोदी में डाल दिया। ग्यारह महीने की ही तो थी वह रेशम की गुड़िया, जिसके मुलायम छुहाव से मन में ठंडक फैल जाती, जिसके गाल अपने गाल से सहलाने से ख़ून में संचार बढ़ता, एक ताज़गी नसों में बहने लगती, उसकी किलकारी साँसों को महका देती, जीवन-जीवन सा लगता। मेरी रातें दिनों में बदल गईं। क्या सोना, क्या खाना, क्या हँसना, क्या रोना, सब उसके साथ ही होता रहा। हाँ, ऊर्मि के साथ, वह धूप मैं साया! वह उठे तो मैं उठूँ, वह जागे तो मैं जागूँ, वह सोये तो मैं सोऊँ . . . एक चित, एक मन से मैं समर्पित हो गयी उस मासूम जान पर, और वह . . . मेरे जीने का सबब बन गई। वह दिवाली का मनहूस दिन ही तो था, जो कुछ घंटे पहले ऊर्मि को गोद में लिए घर से निकले थे। पाँव छूते हुए अभय और सविता ने कहा था, “माँ दो घंटे में लौट आते हैं, आते ही दिवाली की पूजा साथ करेंगे। मिठाई लेकर कुछ दोस्तों से मिल आते हैं।”
और जाने वाले न लौटने के लिए चले गए। लौट आई मेरे दिल की धड़कन ऊर्मि के रूप में, शायद इसलिए मैं ज़िन्दा हूँ।
घंटी फिर बजी, अतीत से वर्तमान में आते ही मेरी बेबसी मेरे साथ छटपटाने लगी। अब क्या करूँ? फोन उठाऊँ, न उठाऊँ? न उठाऊँ तो कैसे पता चलेगा कि मेरी बालिग़ बच्ची कहाँ है और कैसी है? फोन उठाते ही रख दिया जैसे हज़ार बिच्छुओं का डंक एक साथ लगा हो, “मैं थोड़ी देर में उसके साथ आपसे आशीर्वाद लेने आ रहा हूँ।” बस इतना सुन पाई!
कौन है यह, किसकी आवाज़ है जिसमें ग़ैरत के साथ-साथ अपनाइयत भी है। पर वह कहाँ है जिसकी आवाज़ सुनने को मेरे कान तरस रहे हैं? जिसे देखने के लिए मेरी आँखें बेचैनियों की सहरा में भटक रही है।
अचानक फोन की घंटी फिर बजी, उठाते ही सभ्यता के दाइरे से बाहर आकर मैं उबल पड़ी, “तुम कौन हो और क्यों बार-बार परेशान कर रहे हो? मेरी बात मेरी पोती से करा दो।”
“अभी तो वह गृह-प्रवेश करके अपने सास-ससुर का आशीर्वाद ले रही है। मैं बस अभी उसके साथ आपके पास आ रहा हूँ, फिर आप जितनी चाहें उससे बातें कर कर लें।”
“पर तुम हो कौन?”
“आपका जमाई, आपकी पोती का पति।”
“पति . . .!” मैं विस्मित, अति आश्चर्यजनक रूप से ठगी हुई खड़ी रही। रिसीवर मेरे हाथों से छूटते-छूटते बचा, पर लाइन कट गई।
उसी समय दरवाज़े पर दस्तक ने मुझे दहला दिया। डरी सी सहमे-सहमे काँपते हाथों से मैंने कुंडी खोली। सामने सजी-धजी, माँग में सिंदूर सजाये, लाल साड़ी में ऊर्मि खड़ी थी और उसके बग़ल में दुलहा, अपना चेहरा सर पर सजे मुकुट की लड़ियों में छुपाने में कामयाब रहा। मैं सकते में थी, मन ज़ोरों से मंथन का कार्य करता रहा, अब डर के साथ ग़ुस्सा भी मन में घुस आया था। ऊर्मि बालिग़ हुई तो क्या हुआ, मुझे बताए बिना किसी ऐरे-ग़ैरे के साथ व्याह कर लिया और अब आकर सामने खड़ी हो गई है।
मुझे अभी तक यह सब कांड ही लग रहा था, भयंकर कांड! ऊर्मि भी पथराई सी खड़ी थी मेरे सामने। उसकी मुस्कराहट, जो उसका शृंगार है, जाने कहाँ ग़ायब हुई है। कहना तो नहीं चाहती, सोचना भी नहीं चाहती कि ऐसे क्यों लग रहा है जैसे कोई अनचाहा षड्यंत्र हुआ है जिसमें ऊर्मि जकड़ी हुई है, इसलिए तो मुस्कराहट पर भी करफ़्यू लगा हुआ है। जितना मैं सुलझे हुए विचारों से हर पहलू पर रोशनी डालती, उतनी ही मैं उलझनों में गुमराह होती जाती। कभी भावहीन मूर्ति ऊर्मि की ओर देखूँ, जो अपने पति के साथ ऐसे खड़ी है जैसे मैं उनका स्वागत करने के लिए तैयार खड़ी हुई हूँ। न शोर, न गुल, न बैंड, न बाजा, बस फूल, फूलों की माला, लाल दमकती साड़ी, और लड़के की वेषभूषा से प्रतीत होता कि दोनों नवविवाहित दंपती हैं। बस, और कुछ नहीं था, न शहनाई, न मंडप, न फेरे, न महमानों की हलचल, न खाना, न पीना, ऐसा कुछ भी नहीं जिससे लगे कि यह शादी हुई है। और मैं उसकी दादी अपरिचित सी खड़ी देख रही हूँ, उन्हें घर की दहलीज़ के उस पार और मैं सोचों में डूबी इस पार। ‘सदा सुहागन का आशीर्वाद दीजिये दादी’ अचानक सोच के सभी बंधन टूटे। मैंने ऊर्मि की ओर देखा जो मिली-जुली भावनाओं से मेरी ओर देखे जा रही थी। मैंने बिना मुस्कराये सब कुछ नज़र अंदाज़ करते हुए, लगभग गरजती आवाज़ में उस अनजान दूल्हे की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा, “क्या अपना चेहरा दिखाने के लिए तुम्हें मुँह दिखाई देनी पड़ेगी?”
“मेरा हक़ तो बनता है . . .!” वह फुसफुसाया। निशब्दता अब भी माहौल पर हावी रही। अब दूल्हे के शरीर में हरकत हुई, वह धीरे-धीरे पूरी तरह झुका जैसे उसके हाथ पाँवों को स्पर्श कर पाएँ।
जाने क्या था उस स्पर्श में कि मेरे हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद उसके माथे पर चले गए और मुँह से निकला ‘सदा ख़ुश रहो’ और मैं मुग्ध भाव से फूलों के नक़ाब के पीछे से अपनी ऊर्मि के दूल्हे को देखने की ललक रोक न पायी। जैसे ही वह पाँव छूकर सर ऊपर उठाने को हुआ, मैंने उसके मुकुट से लटकती फूलों और मोतियों की लड़ियों को हटाया तो एक सलोनी मुस्कराहट से सामना हुआ। देखा सामने सुंदर नयन नक़्श, चमकती आँखें, मनमोहिनी मुस्कान लिए दोनों हाथ जोड़े खड़ा था सुजान।
मैंने ख़ुद को सँभालते हुए दोनों को गले लगाया, आरती-टीका करके उन्हें घर में प्रवेश कराया। अब मन में डर का, सिहरन का कोहरा छँट गया। अपनाइयत की रोशनी में ग़ैरत का अँधेरा गुम हो गया। मन के सारे भ्रम रफ़ूचक्कर हो गए। मनमोहन मुस्कान का मालिक सुजान, मेरी बहू सविता का छोटा भाई, आज मेरी ऊर्मि के पति के रूप में सामने था।
मैं रसोईघर की ओर भागी, जहाँ से मुँह मीठा कराने के लिए और कुछ न पाकर शक्कर का डिब्बा ले आई। बारी-बारी दोनों को चुटकी भर खिलाई और पानी पिलाया। घर में सादगी से शुभ प्रवेश तो हुआ पर मन में एक अनसुलझी गुत्थी मुझे बेक़करार कर रही थी।
“दादी आप बैठें, ज़ियादा परेशान न होइए।”
लेकिन मैंने उनकी एक न सुनी, फोन उठाया और लगाया ऊर्मि की नानी को . . .!
“बधाई हो दादीजी!” उधर से पहल हुई।
“आपको भी नानी जी, पर यूँ लुकाछुपी में ये सब . . .?”
“क्यों और कैसे, आप सब जानने को आतुर हैं, हमें इसका एहसास है। आपको तो पता ही होगा, जब नातिन अपने मामा से शादी करती है तो चोरी-छुपे सिर्फ़ लड़के के परिवार में ही की जाती है, अगर आज सविता होती तो वह भी शामिल नहीं होती। हम अभी आपके पास पाँच सात मिनिट में पहुँच रहे हैं।” और फोन कट गया।
ऊर्मि के नाना-नानी आ रहे हैं, यानी मेरे संबंधी। संबंधी तो वे थे ही, अब रिश्ता और मुकम्मिल हुआ है और मेरी हर चिंता का समाधान सहजता से सजता गया . . .
उसी वक़्त दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। रसोई से बाहर निकलते ही देखा ऊर्मि ने दरवाज़ा खोलने की पहल की थी और अब अपनी नानी, सुजान की माँ को सास का दर्जा देते हुए पाँव छू रही थी। फ़जाँ में ख़ुशियाँ घुल-मिल गईं। बधाइयाँ अदला-बदली हुई, मुँह मीठा किया और मिलकर चाय-नाश्ते के साथ बातें होतीं रहीं। कुछ कही जा रही थी, कुछ सुनी जा रही थी, पर सब की सब सुखद और ख़ुशनुमा थीं।
बातों के बीच कई अनजानी बातों से पर्दा उठा कि उस रात ऊर्मि और सुजान ने सम्पूर्ण धार्मिक रीति-रस्मों से मंदिर में अपने माता-पिता के सामने शादी की, और वे दादी को सर्प्राइज़ देना चाहते थे। हक़ीक़त में दादी को यह पता तो था कि आंध्राप्रदेश में कुछ ख़ास परिवारों में यह प्रथा थी कि बहन की लड़की का व्याह रहस्यमय ढंग से मामा के साथ करवा दिया जाता, और तद्पश्चात माँ और बेटी समधिन बन जातीं। भाई, बहन का जमाई बन जाता है और लड़की नानी की बहू। दादी आज सविता की जगह खड़ी सभी रिश्ते स्वीकार करके बहू की याद में रो पड़ी। पर इसमें एक ख़ुशी भी पोशीदा थी, कि उसे ऊर्मि के लिए उसका मामा, पति के रूप में एक वरदान स्वरूप मिला, एक रक्षक, एक कवच बनकर!
पर फोन पर वे शब्द “परेशान मत करो, एक घंटे में उसकी शादी हो रही है . . .।” अब एक सुखद यादगार बन गई।
“दादी हम सभी ने तय किया कि यह शादी रहस्यमय ढंग से सम्पूर्ण करके हम आपके पास आशीर्वाद लेने आएँ। हमें पता है कि आप ऊर्मि को ख़ुद से जुदा करके हमारे घर की बहू बनाने के लिए राज़ी नहीं होगी।” कहते हुए ऊर्मि की नानी ने उठकर दादी को गले लगाया और उनके आँसू पोंछे। सभी का दर्द साझा था, सभी की ख़ुशियाँ साझी थीं। आँखों में एक मंज़र तैर आया, बारह महीने की नन्ही ऊर्मि और बाईस साल की नौजवान ऊर्मि अपनी ही नानी की बहू बनी, अपनी माँ की इच्छा पूरी की और अब भावभीनी-सी दादी के चरणों की ओर झुकी तो दादी ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया। कल रात और आज सुबह तक के बीच का वह सिहरता समय अब ख़ुशियों की फुहार में बदल गया। आज दादी ने महसूस किया कि दो पीढ़ियों को पाटने वाला प्यार ऐसा भी होता है।
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