दरिया–ए–दिल

 

1222    1222    122

 

लड़ाई भूख से लड़ने लगा हूँ
मैं जब से भीख लेने लग गया हूँ
 
झुका  जब से है बाग़ी मन मिरा ये
ख़ुदा की रहमतें पाता रहा हूँ
 
कहा किसने बुरे तुम, मैं भला हूँ
बुराई से अभी तक जूझता हूँ
 
दरो दीवार है पर छत नहीं है
कहाँ रखूँ उम्मीदें सोचता हूँ
 
जहाँ बतियाती हों दीवारें घर की
मकाँ ऐसा ही अब मैं ढूँढ़ता हूँ
 
मेरे पहले जो रहते थे कहाँ हैं
है घर किसका जहाँ मैं रह रहा हूँ
 
जो जलकर भी उजाले दे न पाया
वही मैं बदनसीब ऐसा दिया हूँ
 
जो कहता कुछ औ करता कुछ  ऐ ‘देवी’
उसे बर्दाश्त करने पर तुला हूँ 

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