दरिया–ए–दिल

दरिया–ए–दिल  (रचनाकार - देवी नागरानी)

बहता हुआ दरिया-ए-दिल

आमुख

 

देवी नागरानी जी मेरी बड़ी बहन जैसी हैं। इसका कारण यह है कि हम दोनों के उस्ताद एक ही थे— आदरणीय आर.पी. शर्मा ‘महरिष’ जी जिनसे हमने ग़ज़ल और इल्मे अरूज़ की बारीक़ियाँ सीखीं। हमारा दुर्भाग्य है कि वे हमें छोड़कर चले गए मगर उनकी प्रेरणा हमारे साथ है। हम दोनों के बीच का रिश्ता शाइरी की तलब ही है। 

ये शाइरी क्या चीज़ है, अल्फ़ाज़ की जादूगरी
तेरे लिये आवारगी, मेरे लिये दीवानगी

ग़ज़लों की इस किताब का नाम “दरिया-ए-दिल, इस ख़ूबसूरत शेर से लिया गया है। 

दरिया-ए-दिल में रह रह तूफ़ान उठ रहा
हर इक लहर थी लिख रही, इस रेत पर ग़ज़ल

ग़ज़ल एक ऐसी सिंफ़ है जिसमें दिल की बात का इज़हार बहुत सलीक़े से किया जा सकता है। दिल की रेत पर शाइर लिखते ही रहते हैं, चाहे तूफ़ान उसे मिटाते ही रहें। देवीजी ने अपनी शायरी में सिर्फ़ अपने दिल की बात ही नहीं, दुनिया के रंजोगम भी शामिल किए हैं। कहीं-कहीं एक सूफ़ियाना अंदाज़ भी नज़र आता है। 

इंसान को जब लगता है कि ज़िन्दगी में जो भी हो रहा है, उसके बस में नहीं, तो वह ऐसा सोचता है। कभी-कभी अपनी ज़िन्दगी के फ़ैसले दूसरों पर निर्भर करते हैं और यह मामला खिंचता ही चला जाता है। 

क्या ये क़िस्मत की आज़माइश है
या लकीरों की कोई साज़िश है

ख़त्म जल्दी मामला हो ये ज़रूरी तो नहीं
मेरे हक़ में फ़ैसला हो ये ज़रूरी तो नहीं

लोगों को दूसरों की अच्छाइयाँ जल्दी नज़र नहीं आती हैं, मगर उनकी ग़लतियों को पकड़ना और उसका नाजायज़ फ़ायदा उठाना तो बाएँ हाथ का खेल है। 

औरों की ओर उठाते हो उँगली अक्सर
अपनी कमज़ोर नसों को भी दबा कर देखो

ज़िन्दगी में कई मुसीबतें आती हैं, चाहे वो घर की हों, बाहर की हों या रिश्तों की। मगर उम्मीद पर ही लोग जीते हैं कि—

रात को दिन का इंतज़ार रहा
रोशनी पर जो ऐतबार रहा

रिश्तों की हक़ीक़त दूसरों को नज़र नहीं आती है। ऐसे कई मियाँ बीवी के दरमियाँ दिल से रिश्ता नहीं होने के बावजूद अपने बच्चों के लिए या दुनिया को दिखाने के लिए एक ही छत के नीचे रहते हैं। 

एक ही छत के तले दो अपने रहते हो जहाँ
दिल से ‘देवी’ दिल मिला हो ये ज़रूरी तो नहीं

लोग अपने गाँव छोड़ कर रोज़ी रोटी की तलाश में शहर जाते हैं, मगर बचपन की यादें उन लहलहाते खेतों से ही जुड़ी रहती हैं। 

खेतों में चारों ही जानिब फ़स्ल पकी थी सोने जैसी
उस जैसा ही लहराता सा याद आया है बचपन मुझको

आजकल गाँव को शहर में बदलने में देर नहीं लगती। शहर में भी आँगन वाले घर को तोड़ कर कई मंज़िलों वाले फ़्लैट बन रहे हैं। 

पेड़ बरगद का जो आँगन में था, काटा उसे
फिर वहीं ईंट की दीवार को उठते देखा

ख़बरें तो आजकल हर जगह से आ रही है। अख़बारों से, टीवी से, मोबाइल फोन से हर पल नई ख़बर के लिए लोग उतावले होते हैं। 

आज की ताज़ा ख़बर कल की बनेगी तारीख़
ऐसी ख़बरों को कोई रोज़ पढ़ेगा कब तक

इंसान के दिल में कई कारणों से डर जाग उठता है। मगर इसे हराने के लिए एकमात्र शस्त्र है विश्वास—

नीलकंठी बन सको तो बनके दिखला दो उन्हें
मन में है विश्वास तो फिर, विषधरों से मत डरो
आजकल लोग दुआओं को अहमियत नहीं देते हैं जैसे पहले देते थे। वो अपने बुज़ुर्गों से क्या चाहते है देखिए—

विरासत में माँगी थी दौलत सभी ने
किसी ने न माँगा दुआओं का आँचल

इस शेर में एक सूफ़ियाना अंदाज़ है, जो इज़हार करता है कि इंसान के दिल में भगवान बसता है। 

मैं सोया हूँ ग़ाफ़िल बनकर
भीतर मुझमें जागा तू है

कभी जो बात सीधी नहीं कही जाती, उसे तंज़ इस्तेमाल करके कहते हैं—

मैंने सीखे हैं अदब आदाब कुछ-कुछ आपसे
माफ़ करना उनमें शामिल है अगर गुस्ताख़ियाँ

आजकल की पढ़ाई पर एक व्यंग्य है इस शेर में—

धज्जियाँ उड़ने लगी है ज्ञान की
अब हमें अनपढ़ पढ़ाने लग गये

जो पहले मज़बूत होते थे पीढ़ियों के रिश्ते आज के माहौल में कमज़ोर हो रहे हैं—

नींव आँगन की हिली तो हिल गई दीवार भी
लड़खड़ाई पीढ़ी क्यों, उन आसरों का क्या हुआ

कुछ लोग ऐसे है जिनकी आस्था बहुत होती है और वो कड़ी मुश्किलों में भी ऊपर वाले के शुक्रगुज़ार होते हैं।, मौसम प्रकृति में भी आते जाते हैं और ज़िन्दगी में क्या-क्या सहना पड़ता है, ये तय नहीं होता। ऐसे में उनकी बानगी—

भूख में भी बिलबिलाकर, सिसकियाँ भरते रहे जो
आह में भी ‘शुक्र मौला’, कहते थे वो बंदगी थी

मौसमों का छल कपट ‘देवी’ चुभन जो दे गया
अब फ़िज़ाओं में वो ढूँढ़े फिर बहारों की ख़लिश

जैसे रिश्ते बनते-बनते वक़्त लगता है मगर टूटने में वक़्त नहीं लगता, ठीक वैसे ही प्यार के रिश्ते बड़े नाज़ुक होते हैं, और कभी आसानी से टूट जाते हैं—

अहद किया था कभी ‘साथ हम निभाएंगे’
ज़रा सी बात पे वो तोड़कर क़रार चले

बीच में रिश्तों के कोई तो कड़ी कमज़ोर है
वर्ना क्योंकर टूटते यूँ बंधनों के क़ाफ़िले

भूख भी परिंदों को ही नहीं इंसानों को भी कई जाल में फँसा सकती है—

तड़पती भूख के आगे रखे सैय्याद ने दाने
ये लालच काम आया उन परिंदों को फँसाने में

शाइरा अपने दिल की बात कह रही हैं कि वे शाइरी से थकती नहीं। देवी नागरानी का यह सफ़र अभी जारी है। उम्मीद है कि वे यूँ ही अपना कलाम किताबों की शक्ल में शाया करती रहेंगी और हमें बेहतरीन ग़ज़लें
पढ़ने को मिलती रहेंगी—

रात क्या, दिन है क्या पता ही नहीं
शायरी से ये दिल भरा ही नहीं

—एलिजाबेथ कुरियन ‘मोना’

 (एलिजाबेथ कुरियन ‘मोना’ हैदराबाद, की रहवासी है। वे एक बहुभाषी कवयित्री हैं, जो अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू, तेलुगु, मराठी और मलयालम में लिखती और तर्जुमा करती हैं। उनकी पंद्रह किताबें प्रकाशित हुई हैं) 

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