दरिया–ए–दिल

 

221    2121    1221    212
 
अपनी निगाह में न कभी ख़ुद को तोलिए
आईना कह रहा है क्या उसको टटोलिए
 
है सख़्त आज़माइशों का दौर चल पड़ा
सजदे में सर झुकाइए बस कुछ न बोलिए
 
बेदारगी का वक़्त है मिलने का है समाँ
है जागने का वक़्त ये, तुम ख़ूब सो लिए
 
हिस्से का अपने आसमाँ सब को मिला यहाँ
उड़ना अगरचे चाहो, परों को तो खोलिए
 
बेबस ज़माना होगा यूँ सोचा न था कभी
बस गर्दिशों के दौर में घबरा के रो लिए। 
 
शातिर था वो जो आदमी, गंगा गया नहीं
मनमानियों की गंगा में सब दाग़ धो लिए
 
दामन छुडाना काँटों से, बस में तो था नहीं
चुनते ही फूल हाथों में काँटे चुभो लिए
 
कितने अजीब दोस्त थे ‘देवी’ न पूछिए
वो बीच राह छोड़ मुझे आगे हो लिए
 
मैं था यतीम उनका भी कोई तो था नहीं
‘देवी’ जिधर चला था मैं, ग़म साथ हो लिए

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