दरिया–ए–दिल

 

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यह राज़  क्या है जान ही पाया नहीं कभी
क्यों दर्द मेरी जीस्त का थमता नहीं कभी
 
गुमनामियों के शहर में पहचान खो चले
पत्थर की अब सदा कोई सुनता नहीं कभी
 
बीनूर-सी हुई है ये आँखें न जाने क्यों
रोशन ज़मीर का दिया जलता नहीं कभी
 
पत्थर की असलियत से हुआ जो भी आशना
वह तो करूँ कि मार से टूटा नहीं कभी
 
जिन पर गिरीं तबाह वो होते हैं आशियाँ
घर आँधियों को अपना तो होता नहीं कभी 
 
मेरा हक़ीक़तों से जो होता ना वास्ता
मैं सोच के परों पे  यूँ उड़ता नहीं कभी
 
अपनाइयत का आईना टूटा है इस तरह
रिश्ता दरार बिन कोई देखा नहीं कभी

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