दरिया–ए–दिल

 
122    122    122    122
  
जो सदियों से रिश्ते पुराने लगे हैं
वो घर तो नहीं सब ठिकाने लगे हैं
  
ख़ुशामद जो झूठी किये जाते सब की
हिमाक़त वो करने कराने लगे हैं
  
हुए संवेदनाओं से ख़ाली जो नाते
सन्नाटों में बजते तराने लगे हैं 
 
मुकर जाएँ करके जो वादे मिलन के 
न मिलने के मुझको बहाने लगे हैं
  
सियासत के ओढ़े मुखौटे खड़े जो
वो औक़ात अपनी दिखाने लगे हैं
 
जहाँ हाथ कमज़ोर नस जिसकी आई 
वहीं धौंस अपनी जमाने लगे हैं 
 
ज़माने ने समझाया दिन रात जिनको 
समझने में उनको ज़माने लगे हैं
  
जहाँ हाथ कमज़ोर नस जिसकी आई
वहीं धौंस अपनी जमाने लगे है
 
हुए बंद जब से यहाँ दर-दरीचे
ऐ ‘देवी’ वो घर क़ैदख़ाने लगे हैं 

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