दरिया–ए–दिल

 

122    122    122    122
  
नज़र में नज़ारे ये कैसे अयाँ हैं
तबाही है ये, या ये उसके निशाँ हैं
 
जले हैं कहीं घर, कहीं पर जले दिल
ये नौबत है कैसी, ये कैसा धुआँ है
 
ये दुनिया है या है, करिश्मों का मेला
तेरे कारनामे जो करते बयाँ हैं
 
कि रखना पड़े फ़ासला दरमियां ये 
हैं अपने सभी फिर भी क्यों दूरियाँ हैं
 
नहीं काम आते हैं अपनों को अपने
बड़ी आज़माइश का ‘देवी’ समां है

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