दरिया–ए–दिल

 

212    212    212    212
 
पाटे पटती नहीं सोच की दूरियाँ 
मान ली हैं सभी ने ये तब्दीलियाँ 
 
सौदा घाटे का होता, नफ़े का नहीं 
बीच में जब भी आती हैं खुद्गार्ज़ियाँ 
 
ज्ञान हासिल करो तो परीक्षा भी दो
आज़माइश वहीं नेमतें हैं जहाँ 
 
रोक टोक आज भाती कहाँ है किसे 
अब नहीं इसकी आदी जवां लड़कियाँ 
 
क्यों है पहरा लगा आज मुस्कान पर
घुल गईं सुख में दुख की क्यों परछाइयाँ 
 
ख़ुद को ख़तरे में डालो न ये सोचकर
टल गया है ये संकट, मिटी दूरियाँ 
 
कुछ ज़माने के तेवर हैं बदले हुए
सभ्यता ने हैं छीनी ये आज़ादियाँ 
 
रास्ते हैं खुले हम नज़रबंद हैं
आने जाने की ‘देवी’ है पाबंदियाँ 

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