संस्कृति, भाषा और साहित्य सन्दर्भ में भारतीय भाषाओं में पारस्परिक अनुवाद

15-03-2025

संस्कृति, भाषा और साहित्य सन्दर्भ में भारतीय भाषाओं में पारस्परिक अनुवाद

देवी नागरानी (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

‘आज की परिचर्चा का विषय है भारतीय साहित्य में स्त्री का जीवन संघर्ष/कविता में स्त्री स्वर/और साथ में एक नोट भी जुड़ा हुआ कि यह प्रपत्र किसी भी भाषा में हो सकता है—उदहारण कन्नड़, संस्कृत, अंग्रेज़ी, मराठी, उर्दू, कोंकणी, गुजराती, तेलुगु, मलयालम, तमिल आदि . . .!’ मैं सिंधी भाषी हूँ पर मेरी मातृ भाषा सिन्धी का कहीं नमो-निशाँ नहीं। तब मैंने यह तय किया कि मैं विभाजन के बाद सिन्धी साहित्य में लेखिकाओं के काव्य का स्वरूप सामने ले आऊँगी। 

एक बात जो सूरज की रौशनी के समान सामने आ रही है वह यह है—प्रांतीय परिधियों के बाँध तोड़ता है अनुवाद . . .! दोस्ती का पैगंबर है अनुवाद . . .! आज की माँग अनुवाद है—विवाद नहीं! भाषा की विविधता के बावजूद भी मानव मन की भावनाएँ वही हैं, धूप–छाँव की तरह दुख–सुख वही है, समस्याएँ–समाधान भी वही है, संघर्ष भी वही . . .! 

‘साहित्य में कविता की सिन्फ़ में स्त्री स्वर, मतलब नारी मन की सोच शब्दों में अभिव्यक्ति करने की क्रिया।’ यह भी एक संघर्ष है। अपने अन्दर की छटपटाहट को व्यक्त करना अब उसका ध्येय बन गया है। स्वरूप ध्रुव के शब्दों में: 

सुलगती हवा में स्वास ले रही हूँ दोस्तो
पत्थर से पत्थर घिस रही हूँ दोस्तो! 

भाषा को लेकर बहुत कुछ कहने सुनने-सुनाने के बावजूद भी विस्थापन के दर्द में एक दर्द और शामिल हुआ जा रहा है। सिन्धी भाषा का देवनागिरी लिपि का पाठ्यक्रम में शामिल न हो पाना। बच्चे स्कूल व् कॉलेज हिंदी व् अंग्रेज़ी के माध्यम से पढ़ कर अपनी-अपनी नौका पार लगाने में समर्थ हो रहे हैं। मैंने ख़ुद हिंदी व् अंग्रेज़ी में शिक्षा पूरी की और उम्र के छठे दशक में अपनी मातृभाषा सिन्धी सीखी। यह मेरा जुनून था या उस ऊपर वाले की मर्ज़ी कि मैंने भाषा के बाद जाने-अनजाने में सिन्धी काव्य को हन्दी में अनुवाद करने की ठानी। एक शिक्षिक होने के नाते कुछ भावनाएँ अपनी सिन्ध के, उस मिट्टी की महक की मेरे भीतर ख़ुश्बू बन कर फैलने लगी। 

मेरी जन्म भूमि सिन्ध है, जिसके मिट्टी की सौंधी ख़ुश्बू आज भी मेरी साँसों समाई है। संभवता यही एक कारण हो जो मेरे लेखन में वतन का ज़िक्र छिड़ जाता है। मेरी पहली ग़ज़ल जो प्रवास में 2006 में मैंने रची वह थी: 

मेरे वतन की ख़ुश्बू: जिसका मतला और मक़्ता यहाँ पेश है:

बादे-सबा वतन की चन्दन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है 
‘देवी’ महक है इसमें मिट्टी की सौंधी सौंधी
तेरी भी याद इसमें घुलमिल के आ रही है। 

उसी मातृभूमि की मिट्टी से जुड़ी यादें सालों बाद यह स्वरूप ले लेंगी, नहीं जानती थी। सिन्धी भाषा व् सिन्धी अवाम के साथ इतना लगाव होगा, पता न था कि उम्रे-दराज़ से कुछ पल चुराकर अपनी भाषा से व् उन लोगों से जुड़ जाऊँगी, जिन्होंने मुझे अपनाया, इन साहित्य की पगडंडियों पर मेरी हिम्मत बढ़ाई, जो आज मैं अनुवाद के माध्यम से उनपर अपनी क़लम आज़मा रही हूँ। 

इसी दिशा में मैंने विभाजन के बाद उखड़ने और बस जाने की प्रताड़ना को सिंधी कहानियों और कविताओं को अनुवाद के माध्यम से दरपेश किया है। कविवर बच्चन जी, जो स्वयं एक कुशल अनुवादक रहे, उनका कहना कि, “अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए।” 

एक थका हुआ सच 

कराची सिंध की जानी मानी शायारा अत्तिया दाऊद का यह काव्य संग्रह ‘एक थका हुआ सच’ अरबी लिपि में संयोग से हाथ आया, जिसने मेरी सोच को बदल दिया, उस काव्य को हिंदी में पाठकों तक पहुँचाना मेरा लक्ष्य बन गया। मैंने उनकी अनुमति से उस काव्य का 2016 में सिन्धी से हिंदी में अनुवाद किया है, ताकि यह भाषा और भाव से परे की अभिव्यक्ति पाठकों तक पहुँच पाए। 

सिंधी समाज के बीच रहते हुए, पुरुष सत्ता के अधीन नारी की परिवर्तनशील अवस्थाओं के संदर्भ में सिंध की बागी शायरा अतिया दाऊद ने भी अपनी जात के हक़ में अनेक कवितायें लिखी हैं . . . चौंकने वाली, डंक मारती हुई। तेज़ाबी तेवरों में लिखी उनकी कवितायें, फ़क़त कवितायें नहीं, औरत की रूदाद है, जो शब्दों में ढल गयी है। पढ़ते ही मन में हलचल सी मच जाती है। उन्हें सुलगती भाषा के तेवरों में एक बेहतर ज़िन्दगी जीने का हक़ पाने की संभावनाओं को स्पष्टता प्रदान करती अतिया दाऊद की ये पंक्तियाँ डंके की चोट पर कह रही है:

तुम इंसान के रूप में मर्द 
मैं इन्सान के रूप में औरत 

लफ़्ज़ एक है:

मगर माइने तुमने कितने दे डाले 
मेरे जिस्म की अलग पहचान के जुर्म में

औरत और मर्द दोनों संसार की उत्पत्ति के प्रधान पहिये हैं, जो नवनिर्माण के अहम कारण हैं। शक्ति, बुद्धि, विवेक जितना पुरुष को प्राप्त है उतना ही स्त्री को। बावजूद इसके भारतीय समाज में पुरुष प्रधानता के कारण नारी अपने कांधों पर उठाई ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी सी रह जाती है। पिता, भाई और पति की सत्ता के तहत, उनके तबक़े व दबाव में वह फ़क़त घर की दहलीज़ की ख़ामोश साँकल से बँधी रह जाती है। लम्बे अरसे से हो रहे दमन और शोषण के कारण नारी चेतना जागृत होकर नारी विमर्शों को जन्म देने में कामयाब हुई है। पुरुष सत्ता को अस्वीकार करते हुए अत्तिया जी के काव्य में नारी स्वर की गूँज कहती है:

मुझे गोश्त की थाली समझ कर। चील की तरह झपट पड़ते हो 
उसे मैं प्यार समझूँ । इतनी भोली तो मैं नहीं . . . 
मुझसे तुम्हारा मोह ऐसा है/ जैसा बिल्ली का छिछड़े से
उसे मैं प्यार समझूँ । इतनी भोली तो मैं नहीं . . . (मांस का लोथड़ा12) 

आज के दौर में क़लम तलवार की धार बनकर बेज़ुबान की ज़ुबान बन गई है। शब्दों की सियाही में आज की औरत की एक ऐसी रूदाद है, एक ऐसी आपबीती है जिसकी एक-एक पंक्ति में औरत के दिल के भरभराते अहसासों और जज़्बों की घुटन महसूस की जाती है। अब उसकी हर चाहत ख़ामोशी के पर्दों को चीरकर इन अल्फ़ाज़ की गहराइयों के माध्यम से अपने जज़्बातों की अभिव्यक्ति बनकर गूँजने लगी है। शब्दों की सूनी खलाओं में आतिया जी के हृदय की बेज़ुबान चीखों की गूँज सुनिए:

दुनिया में आँख खोली तो मुझे बताया गया 
समाज एक जगंल है, घर एक पनाहगाह 
मर्द उसका मालिक और औरत किरायेदार 
किराया वह वफ़ादारी की सूरत में अदा करती है-
मैं भी रिशते नातों में ख़ुद को पिरोकर
किश्तें अदा करती आई हूँ

इन अल्फ़ाज़ की गहराइयों में झाँकते हुए मानव मन कितनी ही ज़िंदगानियों के भीतर झाँक पाता है। कल और आज की नारी में ज़मीन आसमान का अंतर है। वह अपनी सोच को ज़बान देने में कामयाब हुई जा रही है, अपने भले-बुरे की पहचान रखते हुए, अपनी सुरक्षा, आत्म-निर्भरता व प्रगति की हर दिशा में अधिकार पाने की राहें तलाश रही है। अतिया दाऊद की अभिव्यक्ति में हर नारी की आवाज़ पाई जाती है। जहाँ मुल्कों की सरहदें अपना वुजूद खो बैठती है, जहाँ सदियों के फ़ासले तय करना उनके लिए आसान हुआ जाता है, सच के सामने आईने रखते हुए वे कह उठती है: 

जिस धरती माँ की क़सम खा कर
तुम से स्नेह निभाने के वाद किये थे 
उस धरती को हमारे लिये क़ब्र बनाया गया है 
देश के सारे फूल नोंचकर बारूद बोया गया है

आज के बदलते युग में नारी को अपनी जात का मान सम्मान, उसका अपना सम्मान लगता है और उसका अनादर स्वयं का अनादर है। वैसे आज के शिक्षित माहौल में वह अपनी पहचान पाने में सक्षम हुई है। अब वो दिन लद गए जब औरत पाँव की जूती मानी जाती थी, पर आज वह कोई अस्तित्वहीन वस्तु नहीं जिसके साथ अव्यवहार करके उसके अस्तित्व को नकारा जाए। उसकी अपनी दिल की रूदाद अब क़लम को तलवार के तरह इस्तेमाल करते हुए भावनाओं को शब्दों में ढाल रही है। 

यह दुर्दशा है नारी की इस समाज में। नारी तब तक अपने अपने हिस्से का बनवास भोगती रहेगी? नारी के घायल मन से निकली आह, सिर्फ़ शब्दावली नहीं है, हर औरत की रूदाद है। विभाजन उपरांत पंजाब की प्रख्यात कवित्री, कहानीकार व उपन्यासकार अमृता प्रीतम ने नारी की प्रताड़ना को, ज़िल्लत भरे माहौल में पनपते देखा। उनकी क़लम ने नारी के ज़ेहन की त्रासदी को पहचानाते हुए उनके मनोभावों को ज़ुबान दी। अमृता प्रीतम के इस काव्य में यही भाव खौल रहा है:

“मिट्टी के इस चूल्हे में। इश्क़ की आँच बोल उठेगी 
मेरे जिस्म की हँडिया में/ दिल का पानी खौल उठेगा!”

नई नस्ल की बुलंद आवाज़ अतिया दाऊद की क़लम से लिखी शायरी में सरसराहट से विस्फोटित होती हुई एक ज़ोरदार आवाज़ में औरत के दोज़ख की आग में जलती ज़िन्दगी के आस पास की कठिनाइयाँ बयान करती है। नक़ाबों में छिपे भेड़ियों, चेहरों, किरदारों के तेवर देखते हुए यही कहा जा सकता है कि औरत ने संघर्ष स्वीकार लिया है, चट्टानों से टकराना स्वीकार कर लिया है। पूर्ण रूप से वर्तमान में जीना सीख लिया है और भविष्य को अपने हाथों से सँवारने का संकल्प ले लिया है। 

स्त्रीवाद लेखन अस्मिता का प्रमाण है, कोई मनोरंजन नहीं। स्वतंत्र रूप से अपने भीतर की संवेदना को, भावनाओं को निर्भीक और बेझिझक स्वर में वाणी दे पाने में नारी सक्षम हुई है। सिंध की लेखिका अतिया दाऊद ने भी दोस्तों की दोस्ती को मानवता की तराज़ू में तोलते हुए लिखा है:

दोस्त, तुम्हारे फ़रेब के जाल से निकल तो आई हूँ 
मगर हक़ीक़त की दुनिया भी दुख देने वाली है।

जो कवि अपने शीश-महल में बैठकर काव्य सृजन करते है वे तानाशाहों के अत्याचारों से वाकिफ़ तो होते हैं, लेकिन मनुष्य की पीड़ा और वेदना उन्हें द्रवित नहीं करती। लेखन में काव्य सौन्दर्य तथा कथ्य और शिल्प का अद्भुत तालमेल पाठक की उकीरता जगाने के लिए काफ़ी है। चिंता-प्रधान काव्य रहस्य की सीमाओं को छू पाने की, प्रविष्टि पाने की क्षमता रखता है। यही संधि रचनाकार को कसौटी पर खरा उतारती है। अपने मनोभावों को वह क़लम की नोक से नहीं, तलवार की धार से वार करती दिखाई देती है। यही उत्तरदायित्व निभाने का जीवंत और कारगर माध्यम है। नारी आज रिश्तों की निरख-परख करते हुए अपने विचार बेझिझक, बेबाकी के साथ सामने रखने से नहीं कतराती—अपने मनोभावों को ज़बान देते हुए मेरी एक कविता का अंश भी मेरी क़लम की धार से अपना इज़हार करते हुए यही दावा कर रहा है ‘अनजान’ नामक कविता में:

जब तक ख़ुद से मिली न थी। 
अनजान थी! 
एक नहीं, अनेक सच्चाइयों से 
जिन्हें मैं अपने ही कफ़स से ढकती रही 
गंधारी की तरह खुली आँखों पर 
पट्टी बाँधकर
हर सच्चाई को टटोलते हुए
नकारती रही
क्या कभी देखा अनदेखा। 
एक हो सकता है? 
जुर्म और सज़ा को एक तराज़ू में तोला जा सकता है? 
नहीं ना? 
तो फिर क्यों सवाल किया? 
मन ने युधिष्ठिर की तरह
कि सौ जनम तक कोई गुनाह नहीं हुआ है मुझसे
क्यों फिर यह बीनाई मेरे हिस्से में आई? 
कृष्ण ने कहा था। 
नियति टल नहीं सकती
किसी की भी नहीं! 
जन्मों का क़र्ज़ एक जनम में तो 
उतरने वाला नहीं 
यह मानव जनम बड़ा ही मुश्किल
मंद बुद्धि के कारण 
समझ पाना मुश्किल 
पर अपना ही बोया हुआ 
ख़ुद की काटना पड़ता है। 
यह तय है। 
बस मानना है, 
स्वीकारना है, 
बिना किसी दलील के
यही बेबसी का अंतिम चरण
नियति बन जाता है। 

मन की सइरा में शायद नारी का सफ़र सदियों से जारी है। अपने मन रूपी ज्वालामुखी से पिघले हुए लावे की मानिंद निकली काव्य धारा में वह निरंतर प्रताड़ित मन की भावाभिव्यक्ति करते हुए लिखती है। 

बस इसी कामना से, 
आपकी अपनी 
देवी नागरानी

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