दरिया–ए–दिल

 
2122    2122    2122    2122
 
हार मानी ज़िन्दगी से, यह सरासर ख़ुदकुशी थी
ज़िन्दगी तुम जी न पाए, बात यह तो दूसरी थी
 
एक माँ थी तीन बच्चे, बेटा इक, दो बेटियाँ थीं
एक झुग्गी, रोटियाँ दो बीच में बस भुखमरी थी
 
भूख में भी बिलबिलाकर, सिसकियाँ भरते रहे जो
आह में भी ‘शुक्र मौला’, कहते थे वो बंदगी थी
 
वो भी चुप था मैं भी चुप थी, बीच में कुछ था ज़रूर
फिर पता ये था चला वो बर्फ़ सी इक ख़ामुशी थी
  
क्यों कोई अपना है मिलता ग़ैर से जाकर कहो
यह बग़ावत थी या उसकी, अपनी कोई बेबसी थी
 
पाप करके फिर से गंगा वो नहाकर लौट आता
क्या कहूँ शातिर था वो या ये भी उसकी सादगी थी
 
अपनी उस ‘मैं’ को बचाना, काम हर इक का है अपना
बोयेगा जो काटेगा वो, उसकी यह नेकी बदी थी

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