दरिया–ए–दिल

 
2122    2122    2122    2122
 
आँखों के आँगन में पाई फिर नज़ारों की ख़लिश
उन नज़ारों से मिली हर बार खारों की ख़लिश
 
मिलने का हर इक निशाना चूक जाए जब कभी
करते हैं महसूस मौक़े भी किनारों की ख़लिश
 
तेरी हर इक बात का करते भरोसा जो उन्हें
तोड़कर विश्वास देना मत सहारों की ख़लिश
 
कल जो सपने नींद में देखे थे उनको फिर कभी
ख़ुश्क सहरा सी न देना तुम दरारों की ख़लिश
 
मौसमों का छल कपट ‘देवी’ चुभन जो दे गया
अब ख़िज़ाँ में फिर से ढूँढ़े वो बहारों की ख़लिश

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