दरिया–ए–दिल

 

1212    1122    1212    22 
 
है बाग़ बाग़ मिरा दिल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से 
महक उठी है ये महफ़िल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से 
 
न तू कली है कोई और मैं कोई भँवरा 
हुए हैं फिर भी क्यों घायल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से 
 
गवारा कैसे हो ये दूरी, है कैसी मजबूरी 
मिलन हुआ है क्यों मुश्किल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से
 
क्यों झूम झूम के मन बांवरा है नाचे यूँ 
गया है कल से मचल दिल, ग़ज़ल की ख़ुश्बू से 
 
खिली कली तो बनी है गुलाब गुलशन का 
हुआ लिबास भी झिलमिल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से
 
उठी जो दिल में तमन्ना यूँ लेके अंगड़ाई 
तमाम यादें थीं बेकल, ग़ज़ल की ख़ुशबू से 
 
न ग़म ख़ुशी का लिया तूने ज़ायक़ा ‘देवी’ 
गले तू आके कभी मिल, ग़ज़ल की ख़ुश्बू से

<< पीछे : 89. ये वो है कशकोल जिसका छेद भी… आगे : 90. है बाग़ बाग़ मिरा दिल, ग़ज़ल… >>

लेखक की कृतियाँ

कहानी
पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक आलेख
अनूदित कहानी
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो