दरिया–ए–दिल

 
 2122        2122    2122    2122
 
ये शाइरी क्या चीज़ है, अल्फ़ाज़ की जादूगरी
तेरे लिये आवारगी, मेरे लिये दीवानगी
 
मेरे ख़ुदा कुछ ऐसा कर दिल से मिटादे तीरगी
“जलते रहें दीपक सदा, क़ायम रहे ये रौशनी”
 
ग़ुरबत के घर में दोस्तो, फ़ाके अभी तक हैं वही
हालात गर ऐसे रहे, कैसे मिटेगी भुखमरी
 
ले कर उदासी आँख में चुपचाप बैठे बज़्म में
आया गया कोई नहीं, मुद्दत से झेली ख़ामुशी
 
गिरते रहे, उठते रहे, ख़ुद से सदा लड़ते रहे
इस ज़िन्दगी की जंग में हारे कभी जीते कभी
 
जलता रहा किस आग में जाने चमन शाम‍-ओ-सहर 
दुश्मन की थी वो चाल या उसकी ही कोई बेबसी
 
जानी हुई वो राह थी, पहचान का था मोड़ भी
इक दूसरे के वास्ते फिर क्यों रहे हम अजनबी
 
‘देवी’ ख़ुशी से की सुलह हर वक़्त, हर इक हाल में
फिर भी पड़ी क्यों झेलनी बेवक़्त की नाराज़गी

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