दरिया–ए–दिल

 

2122    2122    2122    212
 
क़हर बरपा कर रही हैं बिजलियाँ कल रात से
है निशाने पर मिरा भी आशियाँ कल रात से
 
हाथ फैला कर दुआ है माँगते उनके लिए
जो समंदर में है उतरीं कश्तियाँ कल रात से
 
आहटें अनजान आसारों की देतीं दस्तकें
क्यों है लगता पास है दौरे-खिज़ां कल रात से
 
आए दिन होती जहाँ थी मस्तियाँ माहौल में
ख़ामोशी से हैं घिरी वो बस्तियाँ कल रात से
 
सामने के घर में रहती थीं दो सुंदर लड़कियाँ
जाने क्यों है बंद उनकी खिड़कियाँ कल रात से
 
रात तूफ़ानी है लाई साथ में क्यों हिचकियाँ
ख़ैर कर मौला सभी हैं बेज़ुबां कल रात से
 
कल तलक जिनको न छू पाया कभी भी दर्द, वे 
बाँटते है बैठकर हमदर्दियाँ कल रात से 
 
जो पसीने ख़ून से सींचा किए है बाग़ को
क्यों हुआ ‘देवी’ वो बेघर बागबां कल रात से

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