दरिया–ए–दिल


 
2122    1212    112  
 
मेरा तारूफ़ है क्या मैं जानता ही नहीं
मैं कभी ख़ुद से भी मिला ही नहीं
 
बन के हम तुम किनार बढ़ते हैं
बीच का कोई रास्ता ही नहीं
 
साथ सदियों से है किनारों का
फिर भी उनका मिलन हुआ ही नहीं
 
वो था क़ाबिल रहा मैं नाक़ाबिल
उसके जैसा कभी बना ही नहीं
 
मैं जिसे जानता क़रीब से था
उसका किरदार ऐसा था ही नहीं
 
एक होता जवाब दे देता
पर सवालों की इंतहा ही नहीं
 
राह पुरख़ार थी बहुत उसकी 
फिर भी चलता रहा रुका ही नहीं
 
क़र्ज़ वो भी चुका दिया ‘देवी’
जो कभी मैंने था लिया ही नहीं

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